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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


पत्र-लेखकको जनरल डायरके सम्बन्धमें मेरी स्थितिकी सही जानकारी नहीं है। उन्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि बात केवल इतनी ही नहीं है कि मैंने उन्हें सजा देने की सिफारिश नहीं की, बल्कि मेरे साथियोंने भी, मुख्यतः मेरा खयाल करके ही, डायरको सजा देनेकी अपनी माँग छोड़ दी। लेकिन मैंने जिस बातकी माँग की थी और जिसपर अब भी मेरा आग्रह है, वह है जनरल डायरको पेन्शन बन्द कर देना। अत्याचारीको उस के अत्याचारके लिए पुरस्कार देना अहिंसाका अंग नहीं है; पर यदि मैं जनरल डायरको पेन्शन देनेकी बात खुशी-खुशी मान लूँ तो मेरा यह कार्य प्रायः इसी श्रेणीका होगा। परन्तु मेरे कथनका कोई गलत अर्थ न समझे। अवस्था-विशेषमें मैं अत्याचारियोंको सजा देने की भी सिफारिश कर सकता हूँ। उदाहरणके लिए, समाजकी वर्तमान अवस्थाको देखते हुए, मैं चोरों और डाकुओंको बन्दकर रखने में बिलकुल आगापीछा नहीं करूँगा; यह अपने-आपमें एक प्रकारकी सजा तो है ही। लेकिन साथ ही में यह भी स्वीकार करूँगा कि यह सत्याग्रह नहीं है और उस उच्च सिद्धान्तसे पतन है। मगर यह चीज इस बातकी सूचक नहीं होगी कि खुद इस सिद्धान्तमें कोई कमी है। इसका मतलब सिर्फ मुझे अपनी कमजोरीको स्वीकार करना होगा। आज समाजकी जो अवस्था है, उसको ध्यानमें रखते हुए मेरे पास ऐसे लोगोंका दूसरा कोई इलाज नहीं है। इसलिए मैं जेलखानोंको दण्डगृह के बजाय सुधार-गृह बनानेके विचारका प्रतिपादन करके सन्तुष्ट हो रहा हूँ।

लेकिन मैं मृत्यु-दण्ड और कैद तथा शारीरिक दण्डके बीच फर्क करता हूँ। मेरे खयालसे, यहाँ सिर्फ मात्रा-भेद ही नहीं, प्रकार-भेद भी है। मैं चाहूँ तो कैदकी सजा किसी समय रद भी कर सकता हूँ, और इसी प्रकार जिस व्यक्तिको शारीरिक दण्ड दिया हो, उसकी क्षतिपूर्ति भी कर सकता है। लेकिन, किसीको एक बार मार देने के बाद न उसे जिलाया जा सकता है, न उसकी क्षतिपूर्ति की जा सकती है। प्राण लेनेका अधिकार तो सिर्फ ईश्वरको ही है, क्योंकि किसीको प्राण देनेकी शक्ति सिर्फ उसीमें है।

पत्र-लेखकने सत्याग्रहीद्वारा आत्म-बलिदान और दूसरोंके द्वारा उसे दिये जानेवाले दण्डकी चर्चा साथ-साथ की है। मैं मानता हूँ कि ऐसा करते समय वे दोनों स्थितियोंको एक-सा मानकर नहीं चले होंगे। लेकिन, अगर ऐसी किसी उलझनकी सम्भावना भी हो, तो उससे बचनेके लिए मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि अहिंसाका सिद्धान्त सिर्फ एकके द्वारा दूसरेको पहुँचाई गई किसी प्रकार की चोटपर ही लागू होता है। इसके विपरीत, स्वयं चोट और कष्ट सहना तो अहिंसाका मूल-मन्त्र है, और दूसरों के प्रति हिंसाका सबसे अच्छा विकल्प है। मैं सत्याग्रहके लिए हजारों स्वयंसेवकोंके खुशी-खुशी अपनी जान दे देने के पक्षमें हूँ—सो इसलिए नहीं कि मैं जिन्दगीको कुछ कम मूल्यवान मानता हूँ। बल्कि इसलिए कि मैं जानता हूँ कि इसका परिणाम अन्ततः मानव-जीवनकी रक्षा ही होता है; और जो बात इससे भी बड़ी है वह यह है कि इससे प्राण उत्सर्ग करनेवाले लोगोंकी आत्माका उन्नयन होता है और उनके बलिदानके कारण संसार नैतिक दृष्टि से समृद्ध होता है। मैं समझता हूँ, पत्र-लेखकका यह कथन