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यूरोपवालोंसे

बिलकुल ठीक है कि असहयोग केवल एक आदर्श ही नहीं, बल्कि "भारतको स्वतन्त्रता दिलानेका एक सुरक्षित और छोटा रास्ता भी है।" मैं तो कहूँगा कि राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धोंके लिए भी यह सिद्धान्त बहुत उपयुक्त है। इस सन्दर्भ में अगर मैं गत महायुद्धकी बात करूँ तो मैं जानता हूँ कि इसका मतलब एक बहुत ही नाजुक विषयकी चर्चा में पड़ना होगा। फिर भी मुझे लगता है, अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए यह जरूरी ही होगा। जहाँतक मैं समझता हूँ, दोनों पक्ष अपने स्वार्थ, अपनी लोलुपताको तुष्ट करने के लिए ही इस युद्ध में पड़े थे। यह युद्ध कमजोर जातियोंकी लूटके मालको—जिसे मीठे शब्दों में व्यापार कहा गया है—आपसमें बाँटनेके लिए किया गया था। अगर जर्मनी आज अपनी नीति बदल दे और अपनी स्वतन्त्रताका उपयोग शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच विश्व-व्यापारके बंटवारेके लिए नहीं, बल्कि अपनी नैतिक श्रेष्ठताके बलपर दनियाकी कमजोर जातियोंकी रक्षाके लिए करनेका संकल्प कर ले तो निश्चय ही इसके लिए उसे किसी सैन्य-बलको आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जरा सोच कर देखनेसे स्पष्ट हो जायेगा कि अगर यूरोपमें आम निःशस्त्रीकरणका श्रीगणेश होना है और यूरोपको आत्म-विनाशसे बचाने के लिए यदि इसे किसी-न-किसी दिन करना ही है, तो एक-न-एक राष्ट्रको बहुत बड़ी जोखिम उठाकर सबसे आगे आकर अपने आपको निःशस्त्र करनेका साहस दिखाना ही होगा। अगर सौभाग्यसे यह बात हो जाये तो उस राष्ट्रकी अहिंसाका स्तर बहुत ऊँचा उठ जायेगा और सारी दुनिया उसकी कद्र करेगी। फिर उसके निष्कर्ष बराबर सही और उसके निश्चय अटल हुआ करेंगे। उसमें शौर्य पूर्ण आत्म बलिदानकी जबर्दस्त शक्ति आ जायेगी और उसे जितनी चिन्ता अपने कल्याणकी होगी उतनी ही अन्य राष्ट्रोंके कल्याणकी भी होगी। मैं जानता हूँ कि मैं एक व्यावहारिक प्रश्नपर, जिसके व्यापाक अर्थोंका मुझे ज्ञान नहीं है, सैद्धान्तिक तौरपर विचार कर रहा हूँ। इसके लिए मैं सिर्फ यही सफाई दे सकता हूँ कि अगर मैंने ठीक समझा है तो पत्र-लेखकने मुझसे इसी बातकी अपेक्षा की है।

बेशक, मैं अहिंसा-मात्रको उचित समझता हूँ और मानव-मानव और राष्ट्र-राष्ट्र के आपसी सम्बन्धोंमें उसका प्रयोग शक्य मानता हूँ। किन्तु इसका मतलब "बुराइयोंके खिलाफ सभी प्रकारके सही संघर्षकी ओरसे विरक्त हो जाना" नहीं है। इसके विपरीत, मेरी कल्पनाकी अहिंसाके उपयोगका मतलब प्रतिहिंसाके तरीकेको अपनाने की अपेक्षा कहीं अधिक सक्रिय और वास्तविक संघर्ष करना है, क्योंकि प्रतिहिंसा तो चीज ही ऐसी है जिससे बदी और भी बढ़ती है। मैं अनैतिकताका मानसिक और इसलिए, नैतिक प्रतिरोध चाहता हूँ। मैं अत्याचारीकी तलवारकी धारको बिलकुल ही कुण्ठित कर देना चाहता है, लेकिन उसके मुकाबलेमें तीक्ष्णतम धारवाला हथियार उठाकर नहीं, बल्कि उसकी इस आशाको निराशामें बदलकर कि मैं उसका शारीरिक प्रतिरोध करूँगा। इसके बदले में जिस आत्मबलसे उसका मुकाबला करूँगा, वह उसे चक्करमें डाल देगा। पहले तो वह हक्का-बक्का रह जायेगा और अन्तमें उसे उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करनी पड़ेगी। लेकिन इस स्वीकृतिसे वह अपमानित नहीं होगा, बल्कि ऊपर