पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/३५

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नये आचार

लड्डू खा जाते हैं, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हें लड्डू खिलाना ठीक है। दुबले पशुओंको घास देनेमें दया है। लेकिन, गाँवोंमें तो दुबले पशु होने ही नहीं चाहिए। कुत्तेको खाना देनेमें दया नहीं है। यह तो मेरी समझमें केवल नासमझी ही है। यह तो नींद बेचकर जागरण—बेकार की चिन्ता—मोल लेना है। हम कुत्तेको गलत तरीकेसे सहारा देकर उनकी संख्या बढ़ने देते है और फिर उन्हें लावारिस छोड़कर भूखों मरने देते हैं। कुत्ते तो सब पालतू ही होने चाहिए। आवारा कुत्तोंका अस्तित्व हमारे पाप या अज्ञानकी निशानी है। अहमदाबादके लोग अपने यहाँके लावारिस कुत्तोंको एक जगहसे दूसरी जगह छोड़ आते हैं और इस तरह दया-धर्मका पालन करनेका दावा करते हैं। दया-धर्मपर तनिक-सा विचार करके देखें तो मालूम होगा कि नामकी दया करते जानेमें दोहरी क्रूरता और हिंसा है। एक तो इन कुत्तोंको उनके वातावरणसे निकाल बाहर करनेकी हिंसा, और दूसरे, ऐसे कुत्तोंको पकड़कर गरीब गाँवोंके पास छोड़ देनेसे गाँववालोंके साथ हिंसा। समझदार लोगोंको धार्मिक न्यायकी वृत्तिसे विचार करके आवारा कुत्तोंके उपद्रवसे छुटकारा पानेका उपाय ढूंढ़ना चाहिए। ऐसे काम तो तभी हो सकते हैं जब जातीय पंचायतें दया-धर्मका सूक्ष्म मनन करें। अगर आप ऐसा नहीं करते तो आखिर वह समय आनेवाला है जब धर्महीन सत्ताधारी लोग उतावले होकर कुत्तीको मारना शुरू कर देंगे। तात्कालिक उपाय तो यही दिखाई देता है कि कुत्तोंके विशेषज्ञोंकी देखरेख में उनके लिए पिंजरापोल खोले जायें।

एक सामान्य बातकी चर्चा करते हुए मैं बहुत गहराईमें उतर गया। लेकिन कुतोंको लड्डू खिलाने का प्रस्ताव पढ़कर मेरे सामने साबरमती आश्रममें आवारा कुत्ती द्वारा मचाये जानेवाले उत्पातका दृश्य साकार हो उठा और इसलिए मैने। जानकारीके लिए जीव-दयाके विषयमें कुछ विचार पेश किये।

लेकिन हमारे यहाँ तो जैसे दुबले और निराश्रय जानवर है वैसे ही दुबले और निराश्रय मनुष्य भी हैं। उन्हें इस दशामें जीवित रखने में पुण्य मानकर हम अपने सिर पापका पुंज इकट्ठा कर रहे हैं।

पिछले हफ्ते मैं सूरी गया था। मैं गरीबोंका सेवक माना जाता हूँ, इसलिए सूरीके गण्यमान लोगोंने मेरा खयाल करके वहाँ कंगालोंको भोज दिया था। मेरी गाड़ी पहुँचनेके समय ही उन्होंने भोज रखा था। रास्तेमें दोनों ओर खानेके लिए बैठे गरीबोंकी कतारोंके बीचसे मुझे मोटर गाड़ीमें बैठाकर ले जाया गया। मैं बहत लज्जित हुआ, और अगर अविनयका भय न होता तो मैं वहाँसे उतरकर भाग जाता। खाने के लिए बैठें हुए गरीबोंके बीच मोटरमें विराजमान उनका यह उद्धत सेवक भी खूब रहा! इसके सम्बन्धमें मैंने सूरीकी सभामें अपना कुछ रोना रोया। ऐसा ही दृश्य मैने कलकत्तमें एक पुराने धनाढ्य कुटुम्बके यहाँ देखा था। वहाँ मुझे देशबन्धु स्मारकके लिए चन्दा माँगनेके लिए ले जाया गया था। इस कुटुम्बका महल 'मारबल पैलेस' के नामसे जाना जाता है, और यह बना हुआ भी संगमरमरका ही है। मकान भव्य और देखने लायक है। इस महलके प्रांगण में हमेशा गरीबोंको सदा