पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२३
टिप्पणियाँ
जैसे-जैसे वर्ष बीतते जायें, धीरे-धीरे प्रतियोगिताओंमें भी विभिन्न परीक्षाएँ लागू की जा सकती हैं।
चरखा संघके काम-काजकी व्यवस्था और संचालनके लिए तपे-परखे चरित्रवान और ईमानदार लोग चुने जाने चाहिए, ताकि कमसे-कम यह प्रणाली सफल हो सके। इससे पहले किये गये प्रयत्न जो ऊपरसे देखने में असफल हो गये जान पड़ते हैं, उसका कारण सच्चे और आत्मत्यागी कार्यकर्त्ताओंका अभाव था। हमारो वर्तमान राष्ट्रीय संस्थाओंमें अनेक अवांछनीय लोग घुस आये हैं और अनेक लोग इस समय इस नई संस्थामें भी योजना बनाकर घुसनेको तैयारी कर रहे हैं।

परीक्षकोंके लिए दिये गये ये सुझाव अच्छे हैं और जहाँतक अवांछनीय लोगोंका सम्बन्ध है, सभी जानते हैं कि लोकतान्त्रिक पद्धतिपर गठित संस्थाओंमें तो बुरे लोगोंके घुस आनेका खतरा सर्वत्र रहता है। जबतक दुनिया बिलकुल बदल नहीं जाती तबतक तो ऐसी संस्थाओंको इन कठिनाइयोंका सामना करते ही रहना पड़ेगा और इसलिए अभी तो हमें इस तथ्यको ध्यानमें रखकर चलना होगा एवं तदनुसार व्यवस्था करनी होगी। चूंकि चरखा संघका गठन उसे किसी परिवर्तनशील नीतिवाली लोकतान्त्रिक संस्था बनानेके लिए नहीं बल्कि एक लोकोपकारी व्यापारिक संस्था बनानेके खयालसे किया गया है, इसलिए लोकतान्त्रिक तत्त्वको समुचित नियन्त्रणमें रखा गया है। फिर भी इस ओरसे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि ऐसी लोकोपकारी संस्थामें भी बुरे लोग घुस ही नहीं पायेंगे। इस हालतमें, हम तो सिर्फ यही आशा कर सकते है कि चरखा संघमें ऐसी कोई बात नहीं चलेगी जिससे बुरे विचारके लोगोंके लिए उसमें आनेका कोई आकर्षण हो।

नैतिक साहसकी कमी

एक मित्रने मुझे 'यंग इंडिया' में उद्धृत करनेके लिए निम्न कतरन[१] भेजी है :

इस उद्धृत अंशमें हममें से बहुत-से लोग जो-कुछ प्रतिदिन करते हैं, उसीकी प्रतिध्वनि मिलती है। हम कुछ समयके लिए जिनके अधीन काम करते हैं उसके आदेशके सामने ईश्वरके स्पष्ट आदेशकी उपेक्षा कर देते हैं। यदि हम यह जाननेका कोई उचित उपाय निकाल सकें कि हमें कब सत्ताधारियोंकी आवाज़के सामने झुकने

 
  1. यहाँ नहीं दी जा रही है। इस कतरनमें कहा गया था कि ईसाइयों में नैतिक साहसका अभाव हो गया है, जो एक बहुत बड़ी बुराई है। लोग इसका कोई खयाल नहीं करते कि उनकी अन्तरात्मा, जहाँ ईश्वरका निवास है, क्या कहती है, और वही करते हैं, जो उनके वरिष्ठोंकी इच्छा होती है। वे यह नहीं समझते कि अच्छाईके विरुद्ध और बुराईके हितमें कभी कोई काम न करना ही ईश्वर और अपने वरिष्ठोंके प्रति अपने कर्तव्यका पालन करना है। लेखकने सलाह दी थी कि आवश्यकता हो तो हम अपने वरिष्ठोंके चरणोपर अपने प्राण-न्योछावर कर दें,लेकिन अपनी अन्तरात्माकी आवाजकी उपेक्षा कभी नहीं की जानी चाहिए।