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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सन् १८८९ में 'गीताजी' से मेरा प्रथम परिचय हुआ। उस समय मेरी उम्र २० सालकी थी। उस समय में अहिंसा-धर्मको बहुत ही थोड़ा समझता था। शत्रुको भी प्रेमसे जीतना चाहिए यह मैने गुजराती कवि शामल भट्टके[१] छप्पय "पाणी आपे ने पाय भलुं भोजन तो दीजे से सीखा था।[२] इसमें निहित सत्य मेरे हृदयमें अच्छी तरह बैठ गया था। किन्तु उस समय मुझे उसमें से जीवदयाकी स्फुरणा नहीं हुई थी। इसके पहले मैं देशमें ही मांसाहार कर चुका था। मैं मानता था कि सर्पादिका नाश करना धर्म है। मुझे याद आता है कि मैंने खटमल इत्यादि जीवोंको मारा है। मुझे तो यह भी याद आता है कि मैने एक बिच्छूको भी मारा था। मैं अब यह समझ गया हूँ कि ऐसे विषैले जीवोंको भी नहीं मारना चाहिए। उस समय मैं यह मानता था कि हमें अंग्रेजोंके साथ सशस्त्र युद्धकी तैयारी करनी होगी। 'अंग्रेज राज्य करते हैं। इसमें आश्चर्य ही क्या है' मैं इस मतलबकी एक कविता गुनगुनाया करता था। मैंने मांसाहार इसीकी तैयारीके विचारसे किया था। विलायत जानेसे पहले मेरे ऐसे विचार थे। मैं मांसाहार आदिसे बच गया इसका कारण माताको वचनोंका मरणपर्यन्त पालन करनेका मेरा संकल्प था। सत्यके प्रति मेरे प्रेमने बहुत-सी आपत्तियोंमें मेरी रक्षा की है।

फिर दो अंग्रेजोंसे सम्बन्ध होनेपर मुझे 'गीता' पढ़नी पड़ी। 'पढ़नी पड़ी' इसलिए कहता हूँ क्योंकि उसे पढ़ने की मुझे कोई खास इच्छा न थी। लेकिन जब इन दो भाइयोंने मेरे साथ 'गीता' पढ़नी चाही तब मैं शर्मिन्दा हुआ। मुझे अपने धर्मशास्त्रोंका कुछ भी ज्ञान नहीं है, इस खयालसे मुझे बड़ा दुःख हुआ। मालूम होता है, इस दुःखका कारण अभिमान था। मेरा संस्कृतका अध्ययन ऐसा तो था ही नहीं कि 'गीताजी' के सब श्लोकोंका अर्थ में बिना किसी मददसे ठीक-ठीक समझ लेता। ये दोनों भाई तो कुछ भी नहीं समझते थे। उन्होंने सर एडविन आर्नोल्डका 'गीताजी'का बहुत ही अच्छा काव्यानुवाद मेरे सामने रख दिया। मैंने फौरन ही उस पुस्तकको पढ़ डाला और उसपर मैं मुग्ध हो गया। तबसे लेकर आजतक दूसरे अध्यायके अन्तिम १९ श्लोक मेरे हृदयमें अंकित है। मेरे लिये तो सब धर्म उसी में आ गया है। उसमें सम्पूर्ण ज्ञान है। उसमें कहे हुए सिद्धान्त अचल है। उसमें बुद्धिका भी सम्पूर्ण प्रयोग किया गया है। लेकिन यह बुद्धि संस्कारी बुद्धि है। उसमें अनुभवज्ञान है।

इस परिचयके बाद मैंने बहुतसे अनुवाद पढ़े, बहुत-सी टीकाएँ पढ़ीं, बहुतसे तर्क किये और सुने; लेकिन पहली बार पढ़नेपर ही जो छाप मुझपर पड़ी थी वह दूर नहीं हुई। ये श्लोक 'गीताजी' के अर्थ समझने की कुंजी है। उससे विरोधी अर्थवाले वचन यदि मिले तो मैं उनका त्याग करनेकी भी सलाह दूँगा। नम्र और विनयी मनुष्यको तो उन्हें त्यागनेकी भी जरूरत नहीं है। वह तो सिर्फ यही कहे कि दूसरे श्लोकोंका आज इसके साथ मेल नहीं मिलता तो यह मेरी बुद्धिका ही दोष है; समय

 
  1. (१७००–१७६५) अनेक नीति परक कविताओंके रचयिता।
  2. शत्रुको पानी दे और सम्भव हो तो उत्तम भोजन भी कराते।