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'गीता' का अर्थ

बीतनेपर इनका और इन उन्नीस श्लोकोंमें कहे गये सिद्धान्तोंका भी मेल मिलकर रहेगा। अपने मनसे और दूसरोंसे यह कहकर वह निश्चिन्त हो जायेगा।

शास्त्रोंका अर्थ करनेमें संस्कार और अनुभवकी आवश्यकता है। 'शूद्रको वेदाध्ययन करनेका अधिकार नहीं' यह वाक्य सर्वथा गलत नहीं है। शूद्र अर्थात् असंस्कारी, मूर्ख, अज्ञानी। ऐसे व्यक्ति बेदादिका अध्ययन करके उनका अनर्थ करेंगे। बड़ी उम्रके भी सब लोग बीजगणितके कठिन प्रश्न अपने-आप समझनेके अधिकारी नहीं है। उनको समझनेके पहले उन्हें कुछ प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। व्यभिचारीके मुखमें 'अहं ब्रह्मास्मि' क्या शोभा देगा? उसका वह क्या अर्थ (या अनर्थ) करेगा?

अर्थात् शास्त्रका अर्थ करनेवाला यमादिका पालन करनेवाला होना चाहिए। यमादिका शुष्क पालन जैसा कठिन है वैसा ही निरर्थक भी है। शास्त्रोंने गुरुका होना आवश्यक माना है, लेकिन इस जमानेमें गुरुओंका तो करीब-करीब लोप-सा हो गया है। ज्ञानी लोग इसीलिए भक्तिप्रधान प्राकृत ग्रन्थोंका पठन-पाठन करनेकी शिक्षा देते हैं। किन्तु जिसमें भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं, वह शास्त्रका अर्थ करनेका अधिकारी नहीं होता। विद्वान लोग विद्वत्तापूर्ण अर्थ उसमें से भले ही निकालें, लेकिन वह शास्त्रार्थ नहीं है। शास्त्रार्थ तो अनुभवी ही व्यक्त कर सकता है।

परन्तु प्राकृत मनुष्योंके लिए भी कुछ सिद्धान्त तो है ही। शास्त्रोंके वे अर्थ जो सत्यके विरोधी हैं, सही नहीं हो सकते। जिसे सत्यके सत्य होनेके बारेमें ही शंका है उसके लिए शास्त्र है ही नहीं; अथवा यों कहिए उसके लिए सब शास्त्र अशास्त्र हैं। किसीमें उसका समाधान करनेकी शक्ति नहीं है। जिसे शास्त्रमें से अहिंसा नहीं प्राप्त हुई, उसके लिए भय है; लेकिन उसका उद्धार न हो यह बात नहीं है। सत्य स्वीकारात्मक है, अहिंसा निषेधात्मक है। सत्य जो वस्तु होनी चाहिए उसकी साक्षी भरता है, अहिंसा जो [बाह्यतः] है उसका निषेध करती है। सत्य है, असत्य नहीं है। हिंसा है, अहिंसा नहीं है। फिर भी अहिंसा ही होनी चाहिए यही परम धर्म है। सत्य स्वयं सिद्ध है। अहिंसा उसका 'सम्पूर्ण फल' है, सत्यमें वह छिपी हई है। वह सत्यकी तरह व्यक्त नहीं है। इसलिए उसको मान्य किये बिना मनुष्य शास्त्रका चाहे जितना शोध करे, सत्य आखिर उसे अहिंसाका ही पाठ पढ़ायेगा।

सत्यके लिए तपश्चर्या तो करनी ही पड़ती है। सत्यका साक्षात्कार करनेवाले तपस्वीने चारों ओर फैली हुई हिंसामें से अहिंसा देवीको संसारके सामने प्रकट करके कहा : हिंसा मिथ्या है, माया है, अहिंसा ही सत्य वस्तु हैं। ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह भी अहिंसाके लिए ही है। ये अहिंसाको सिद्ध करनेवाली शक्तियाँ है। अहिंसा सत्यका प्राण है। उसके बिना मनुष्य पशु है। सत्यार्थी अपनी शोधके लिए प्रयत्न करते हुए यह सब बड़ी जल्दी समझ लेता है। फिर उसे शास्त्रका अर्थ करने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती।

शास्त्रका अर्थ करने में दूसरा नियम यह है कि उसके शब्दोंको पकड़ कर नहीं बैठना चाहिए, उसकी ध्वनिको देखना चाहिए, उसके मर्मको समझना चाहिए।