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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तुलसीदासजीकी 'रामायण' उत्तम ग्रन्थ है। क्योंकि उसकी ध्वनि है—स्वच्छता, दया, भक्ति। उसमें 'शूद्र गँवार ढोल पशु नारी, ये सब ताड़नके अधिकारी' लिखा है; इसलिए यदि कोई पुरुष अपनी स्त्रीको ताड़े तो उसकी अधोगति होगी। रामचन्द्रजीने सीताजीपर कभी प्रहार नहीं किया, इतना ही नहीं उन्हें कभी दुःख भी नहीं पहुँचाया। तुलसीदासजीने केवल एक प्रचलित वाक्य लिख दिया। उन्हें इस बातकी कल्पना भी न रही होगी कि इस वाक्यका आधार लेकर अपनी अर्धागिनीकी ताड़ना करनेवाले पश भी निकल आयेंगे। और यदि स्वयं तुलसीदासजीने रिवाजके वशवर्ती होकर अपनी पत्नीका ताड़न किया हो, तो भी क्या होता है? ताड़ना अवश्य ही दोषपूर्ण बात है। 'रामायण' पत्नीके ताड़ने के लिए नहीं, पूर्ण पुरुषका दर्शन करानेके लिए, सती शिरोमणि सीताजीका परिचय करानेके लिए और भरतकी आदर्श भक्तिका चित्र-चित्रित करनेके लिए लिखी गई है। दोषयुक्त रिवाजोंका जो समर्थन उसम पाया जाता है वह त्याज्य है। तुलसीदासजीने भूगोल सिखानके लिए अपना अमूल्य ग्रन्थ नहीं बनाया है, इसलिए उनके ग्रन्थमें यदि भूगोलकी दृष्टिसे गलत बात पाई जायें तो उनको अस्वीकार करना उचित है।

अब 'गीताजी' की बात लें। ब्रह्मज्ञान प्राप्ति और उसका साधन यही 'गीताजी' का विषय है। दो सेनाओंके बीच युद्धका होना निमित्त है। यह भले ही कहा जा सकता है कि कवि स्वयं युद्धादिको निषिद्ध नहीं मानते थे और इसलिए उन्होंने युद्धके प्रसंगका इस प्रकार उपयोग किया है। किन्तु महाभारत पढ़नेके बाद तो मेरे ऊपर भिन्न ही छाप पड़ी है। व्यासजीने इतने सुन्दर ग्रन्थकी रचना करके युद्धके मिथ्यात्वका ही वर्णन किया है। कौरव हारे तो उससे क्या हुआ? और पाण्डव जीते तो उससे भी क्या हुआ? विजयी कितने बचे? उनका क्या हुआ? कुन्ती माताका क्या हुआ? और आज यादव कुल कहाँ है?

जहाँ मुख्य विषय युद्ध वर्णन और हिसाका प्रतिपादन नहीं है वहाँ उसपर जोर देना केवल अनुचित ही माना जायेगा। और यदि कुछ श्लोकोंका सम्बन्ध अहिंसाके साथ बैठाना मुश्किल मालूम होता है तो सारी 'गीताजी' को हिंसाके चौखटमें मढ़ना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है।

कवि जब किसी ग्रन्थकी रचना करता है तो वह उसके सब अर्थोंकी कल्पना नहीं कर लेता है। काव्यकी यही खूबी है कि वह कविसे भी आगे बढ़ जाता है। जिस सत्यका वह अपनी तन्मयतामें उच्चारण कर जाता है उसके जीवनमें अक्सर वह नहीं आया करता। इसलिए बहतेरे कवियोंका जीवन उनके काव्योंके साथ सुसंगत मालूम नहीं होता। 'गीताजी' का तात्पर्य कुल मिलाकर हिंसा नहीं, अहिंसा है; यह बात दूसरा अध्याय, जिससे विषयका आरम्भ होता है और १८ वा अध्याय जिसमें उसकी पूर्णाहुति होती है, देखनेसे प्रतीत हो जायेगी। मध्यमें देखेंगे तो भी यही प्रतीत होगा। बिना क्रोधके, रागके या द्वेषके हिंसाका होना सम्भव नहीं। और 'गीता' तो क्रोधादिको पार करके गुणातीतकी स्थितिमें पहुँचानेका प्रयत्न करती है। गुणातीतमें क्रोधका सर्वथा अभाव होता है। अर्जुनने कानतक खींचकर जब-जब धनुष चढ़ाया उस समयकी उसकी लाल-लाल आँखें मैं आज भी देख सकता हूँ।