अर्जुनने अहिंसाके लिए युद्ध छोड़ने की हठ कब की थी। वह तो बहुतसे युद्ध लड़ चुका था। उसे तो एकाएक मोह हो गया था और उसी कारण वह अपने सगेसम्बन्धियोंको नहीं मारना चाहता था। जिन्हें वह पापी मानता हो उन्हें न मारनेकी बात अर्जुनने कहाँ की थी? श्रीकृष्ण तो अन्तर्यामी है। वे अर्जुनका यह क्षणिक मोह समझ लेते है और इसलिए उससे कहते है, "तुम हिंसा तो कर चुके हो। अब इस प्रकार एकाएक समझदार बननेका दंभ करके तुम अहिंसा नहीं सीख सकोगे। इसलिए जिस कामको तुमने आरम्भ किया है उसे अब तुम्हें पूरा करना ही चाहिए।" घंटेमें चालीस मीलके वेगसे जानेवाली रेलगाड़ीमें बैठा हुआ शख्स एकाएक प्रवाससे विरक्त होकर यदि चलती हुई गाड़ीसे कूद ही पड़े तो यही कहा जायेगा कि उसने आत्महत्या की है। इससे प्रवास या रेलगाड़ी में बैठने के मिथ्यात्वको उसने नहीं सीखा है। अर्जुनका भी यही हाल था। अहिंसक कृष्ण अर्जुनको दूसरी सलाह दे ही नहीं सकता था। लेकिन उससे यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि 'गीताजी' में हिंसा ही का प्रतिपादन किया गया है। यह अर्थ निकालना उतना ही अनुचित है जितना कि यह कहना कि शरीर-व्यापारके लिए कुछ हिंसा अनिवार्य है और इसलिए हिंसा ही धर्म है। सूक्ष्मदर्शी इस हिंसामय शरीरसे अशरीरी बनने का अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेका ही धर्म सिखाता है।
लेकिन धृतराष्ट्र कौन था? दुर्योधन, युधिष्ठिर और अर्जुन कौन थे? कृष्ण कौन थे? क्या ये सब ऐतिहासिक पुरुष थे? और क्या 'गीताजी' में उनके स्थूल व्यवहारका ही वर्णन किया गया है? अकस्मात् अर्जुन सवाल करता है और कृष्ण सारी 'गीता' सुना जाते हैं। और अर्जुन जिसका मोह नष्ट हो गया है यह कहकर भी फिर इसे भूल जाता है और कृष्णसे दुबारा अनुगीता कहलवाता है।
मैं तो दुर्योधनादिको आसुरी और अर्जुनादिको दैवी वृत्ति मानता हूँ। यह शरीर ही धर्मक्षेत्र है। उसमें द्वन्द्व चलता ही रहता है और अनुभवी, ऋषि-कवि उसका तादृश वर्णन करते है। कृष्ण तो अन्तर्यामी है और हमेशा शुद्ध चितमें घड़ीकी तरह टिक-टिक करते रहते हैं। यदि चित्तको शुद्धिरूपी चाबी नहीं दी गई हो तो अन्तर्यामीका यद्यपि वहाँ निवास है, लेकिन उनका टिकटिकाना तो बन्द हो ही जाता है
कहने का आशय यह नहीं है कि इसमें स्थूल युद्ध के लिए अवकाश ही नहीं है। जिसे अहिंसा सूझी ही नहीं है उसे यह नहीं सिखाया गया है कि कायर बनना चाहिए। जिसे भय लगता है, जो संग्रह करता है, जो विषयमें रत है वह अवश्य ही हिंसामय युद्ध करेगा। लेकिन उसका वह धर्म नहीं है। धर्म तो एक ही है। अहिंसाके मानी है मोक्ष और मोक्ष सत्यनारायणका साक्षात्कार है। पर इसमें पीठ दिखानेको तो कहीं अवकाश ही नहीं है। इस विचित्र संसारमें हिंसा तो होती रहेगी। उससे बचनेका मार्ग 'गीता' दिखाती है। लेकिन साथ-साथ 'गीता' यह भी कहती है कि कायर होकर भागनेसे हिंसासे नहीं बच सकोगे। जो भागनेका विचार करता है वह मारेगा या मरेगा।