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पत्र : लखनऊके एक कार्यकर्त्ताको

यदि किसी आश्रममें ऐसा हुआ ही है तो वह केवल सत्याग्रह आश्रममें ही हुआ है। लेकिन उसका हिसाब बिलकुल साफ है। बारडोलीके मकानमें नाहक खर्च अवश्य हुआ, लेकिन उसमें भी अनुभवकी खामी थी। सरमोणमें[१] कोई विशेष खर्च नहीं हुआ। गोधरामें मकानपर जितना चाहिए उससे अधिक खर्च हुआ, लेकिन वह फलीभूत होगा; अन्त्यजोंके लिए ऐसा मकान और कैसे निर्मित हो सकता था? अधिक स्पष्ट लिखोगे तो मैं और अधिक समझाऊँगा।

डाक्टर सुमन्तकी बातको मैने दलीलोंसे नहीं उड़ा दिया। मैं तो एक बालककी बातको भी न उड़ाऊँ; तब फिर जिन डाक्टर सुमन्तपर मुझे गर्व है, उनकी बात में कैसे उड़ा सकता हूँ। लेकिन मुझे जो समझमें न आये उसका मैं क्या करूँ? जो मेरी समझ में आया सो मैंने किया। सत्याग्रह आश्रम यदि सेवक समाज नहीं है तो और क्या है? अपनी कल्पनासे बाहर इससे अधिक अच्छा रूप मैं कैसे देता? दूसरे समाज भी अस्तित्वमें आयें यह मैं चाहता हूँ; परन्तु जिन्हें तदनुसार सूझे वे लोग उन्हें बनायें कि मै बनाऊँ?

बात यह है कि तुम मेरी मर्यादाको नहीं समझे हो। मैं सर्वशक्तिमान नहीं हूँ। मुझमें जितनी शक्ति है उसे मैं बचाकर नहीं रखता; पूरीकी पूरी खर्च कर डालता हूँ। इससे ज्यादा और क्या कर सकता हूँ?

मैं धोलका जानेवाला हूँ, यह निश्चित है। ईश्वर ही न जाने दे तो नहीं जानता। जब मैं आश्रम पहुँचूँ तब मुझे पकड़ लेना। उससे तुम्हारी और मेरी, दोनोंकी चिन्ता कम हो जायेगी। इसका जवाब मत लिखना। लेकिन जब हम लोग मिले तब मेरे साथ खूब चर्चा कर लेना।

बापूके वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ २६९३) से।
सौजन्य : डाह्याभाई म॰ पटेल
 

१७७. पत्र : लखनऊके एक कार्यकर्त्ताको

[पटना]
१२ अक्तूबर, १९२५

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मुझे एक तार मिला है, जिसमें यह शिकायत की गई है कि मैं सीतापुरके कार्यक्रममें व्याघात डाल रहा हूँ। मुझे आपका तार भी मिला था। इसलिए मैंने आपको इस आशयका तार भेजा कि आप सीतापुर कमेटीकी सहमतिसे अपने यहाँका कार्यक्रम निर्धारित करें। फिर भी मैं यह बता दूँ कि यदि लखनऊमें बीच में पाँच घंटेका भी अन्तर पड़े तो इतना समय मुझे आरामके लिए मिलना चाहिए।

 
  1. गुजरातके सूरत जिलेका एक गांव, जहाँ उन्हीं दिनों स्वराज्य आश्रमकी इमारतें बनाई गई थीं।