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बिहारके अनुभव—२

कारण नहीं, अपितु समाजके हितोंकी रक्षार्थ निस्वार्थ भावसे जाति-बहिष्कृत घोषित करता है। जो व्यक्ति ज्ञानोपार्जन अथवा किसी अन्य उचित लाभके लिए समद्र यात्रा करता है, अथवा जो अपने पुत्र या पुत्रीके लिए योग्य जीवन-साथी प्राप्त करने के लिए अपनी उप-जातिसे बाहर सम्बन्ध करता है अथवा जो अपनी कम उम्रकी विधवा कन्याका पुनर्विवाह करने का साहस करता है, उसे जाति-बहिष्कृत करना इस सत्ताका अनैतिक उपयोग है। वर्णाश्रम धर्मका हिन्दू समाज-व्यवस्थामें बड़ा उपयोगी तथा उचित स्थान है; यदि उसे विनष्ट होने से बचाना है तो समयका तकाजा है कि अनगिनत उप-जातियोंको शीघ्र ही एक हो जाना चाहिए। उदाहरणके लिए, कोई कारण नहीं कि एक मारवाड़ी ब्राह्मण या वैश्य, बंगाली ब्राह्मण या वैश्यसे विवाह-सम्बन्ध न करे। कोई महाजन वास्तवमें तभी महाजन माना जायेगा, जब वह उप-जातियोंकी इस समेकनकी प्रवृत्तिको दबाने के बजाय बढ़ावा दे।

आजकल सचमुच जाति-बहिष्कारके पात्र तो ऐसे लोग हैं जो अपनी पुत्रियोंका विवाह कच्ची उम्रमें अर्थात् कमसे-कम १६ वर्षकी आयुके पहले ही कर देते हैं। यदि पर्देकी आड़में चलनेवाले व्यभिचारको कम करना है तो बाल-विधवाओंके मातापिताओंका यह कर्तव्य है कि वे उनके पुनर्विवाहको प्रोत्साहन दें।

पण्डे

भागलपुरसे हम मोटर द्वारा बाँका पहुँचे, जहाँ मौलाना शफी साहबकी अध्यक्षतामें एक जिला सम्मेलन हो रहा था। कोई उल्लेखनीय बात यहाँ देखने में नहीं आई। अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि वहाँकी परेशान कर देनेवाली भारी भीड़के बीचसे जब मैं गजरा तो मेरा अँगूठा कुचला गया और मैं बड़ी मुश्किलसे उससे निकल पाया। वहाँसे हम देवधर गये, जिसे लोग वैद्यनाथ धामके नामसे भी जानते हैं। एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल होनेके अलावा यह पहाड़ियोंसे घिरा एक सुरम्य स्वास्थ्यवर्धक स्थान भी है। बंगालियोंको यह स्थान अत्यन्त प्रिय है। अन्य तीर्थस्थलोंकी तुलनामें यहाँ एक अन्तर देखनेको मिला वह यह कि यहाँके पण्डे काफी सुसंस्कृत और सभ्य थे। अधिकांश स्वयंसेवक चुस्त पण्डा युवक थे, और मुझे बताया गया कि ये यात्रियोंको काफी सहायता देते हैं। उनमें कई तो शिक्षित व्यक्ति है और एक तो उच्च न्यायालयका वकील भी है। कुछ वयोवृद्ध पण्डे मुझसे मिलने भी आये। उन्होंने मुझसे यह जाननेका आग्रह किया कि वे किस तरहसे जनताकी सेवा कर सकते हैं। इसपर मैंने कहा कि यात्रियोंसे पैसा ऐंठने के बजाय आपको उनकी सेवा करनी चाहिए तथा स्वयं पवित्र एवं संयमित जीवन अपनाकर तीर्थस्थलोंको सचमुच पवित्र बनानेका प्रयास करना चाहिए। उन्होंने बड़ी आतुरतासे मेरी इस बातसे सहमति प्रकट की और जिस तरह उन्होंने मेरे सुझावोंको स्वीकार कर लिया, उसे देखकर मुझे तो यही लगा कि वे सच्चे हृदयसे ऐसा कर रहे हैं और विनम्रताके साथ इस बातको स्वीकार कर रहे हैं कि मैंने जिन बुराइयोंकी ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया, वे सचमुच मौजूद है। मुझे यह जानकर आश्चर्य और सुख हुआ कि वह महान् मन्दिर तथाकथित अस्पृश्योंके लिए खुला है। दौरेमें आम तौरपर स्त्रियोंकी सभाएँ हुआ करती थीं। यहाँ उसका

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