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१८१. राष्ट्रीय शिक्षा

अपनी यात्राके दौरान मैं जहाँ कहीं गया हूँ राष्ट्रीय शिक्षामें दिलचस्पी रखनेवाले लोगोंने वहाँ मुझसे कहा है कि मैं खादी, अस्पृश्यता और हिन्दू-मुस्लिम एकताकी बातें करते हुए तो थकता नहीं हूँ; किन्तु आजकल राष्ट्रीय शिक्षाकी चर्चा तो 'यंग इंडिया' में भी शायद ही कभी देखनेको मिलती है। वास्तवमें देखा जाय तो यह बात सच है, लेकिन यह बात मेरे खिलाफ एक शिकायतके तौरपर नहीं कही जानी चाहिए-चाहे फिर इसका सिर्फ यही एक कारण क्यों न हो कि भारतके सबसे बड़े राष्ट्रीय विश्यविद्यालयसे मेरा सीधा सरोकार है। लेकिन, राष्ट्रीय शिक्षा ऐसी चीज नहीं है जिसे अब मेरे लेखों आदिके बलपर आगे बढ़ाया जा सकता हो। इसकी प्रगति तो अब पूरी तरहसे मौजूदा राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओंको ठीकसे चलानेपर निर्भर करती है। अब हम इस देशकी सरकारी संस्थाओंमें शिक्षा प्राप्त कर रहे नौजवानोंसे उन संस्थाओंको छोड़ देनेका आग्रह नहीं कर सकते और न हमें यह आग्रह करना ही चाहिए, क्योंकि अब वे इस विषयकी खुबियों और खामियोंको खुद ही बहत अच्छी तरह जान गये हैं। वे आज भी सरकारी स्कूलोंमें पढ़ रहे है, उसका कारण या तो उनकी अपनी कमजोरी या सरकारी स्कूलोंके प्रति उनका मोह अथवा राष्ट्रीय स्कूलोंके प्रति विश्वासका अभाव है। कारण चाहे जो भी हो, उनकी कमजोरी, सरकारी स्कूलोंके प्रति मोह अथवा राष्ट्रीय स्कूलोंके प्रति विश्वासके अभावको दूर करनेका एक-मात्र उपाय शिक्षकोंके चरित्र और योग्यताके बलपर राष्ट्रीय संस्थाओंको मजबूत और लोकप्रिय बनाना है।


अभी मेरे सामने दक्षिण कलकत्ताके राष्ट्रीय स्कूलकी एक अपील रखी हुई है। अपीलपर काफी संख्या में गण्यमान व्यक्तियोंके हस्ताक्षर है। उसके साथ भेजे गये पत्रमें मुझे यह याद दिलाई गई है कि अपनी कलकत्ता यात्राके दौरान मैंने उस संस्थाको भी एक क्षणिक भेंट दी थी। मुझे यह भी स्मरण कराया गया है कि वहाँ हाथ-कताई एक अनिवार्य विषय है। स्कूलमें सौ विद्यार्थी और अट्ठारह शिक्षक हैं। स्कूलको २०० रुपयका वार्षिक अनुदान मिलता है। इस तरहकी संस्थाएँ भारत-भरमें फैली हुई है, और उनके शिक्षक मुझसे बराबर ऐसा अनुरोध करते ही रहते हैं या तो मैं इन स्तम्भोंमें उनके पक्षमें लिखकर उन्हें प्रसिद्धि दूँ, या इससे भी अच्छा यह हो कि कोषके लिए निकाली गई सीधी अपीलपर अपने हस्ताक्षर कर दूँ। लेकिन कुछ अत्यन्त सुपात्र संस्थाओंको नजरअन्दाज कर देनेका जोखम उठाकर भी मुझे इस लोभका संवरण ही करना होगा। किसी संस्थाके जल्दबाजीमें किये गये मुआइनेसे मनपर पड़ी छाप अगर प्रतिकूल हो तो इतनेसे ही उस संस्थाका कोई नुकसान नहीं होने देना चाहिए। इसी तरह अगर कोई संस्था सचमुच अच्छी न हो और उसे देखने से मनपर पड़ी छाप अनुकूल किन्तु सही न हो तो ऐसी संस्थाका