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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साथ भी नहीं देना चाहिए। मेरा यह निश्चित विश्वास है कि कोई भी योग्य संस्था समर्थनके अभावमें कभी बन्द नहीं होती। जो संस्थाएँ बन्द हई हैं वे या तो इस कारण बन्द हुई है कि उनमें ऐसी कोई चीज ही नहीं थी जिससे जनता उनकी ओर आकृष्ट होती या फिर इस कारण कि उनके कर्त्ता-धर्ता ही आत्मविश्वास खो बैठें थे अथवा उनमें उद्यम करने के लिए उत्साह, जो शायद आत्म विश्वाससे अलग चीज नहीं है, नहीं रह गया था। इसलिए इस संस्थाके और ऐसी ही दूसरी संस्थाओंके संचालकोंसे मेरा अनुरोध है कि वे इस आम निरुत्साहके वातावरणसे पस्त न हों। ऐसे ही समयमें तो योग्य संस्थाओंकी परीक्षा होती है। आज भारतमें ऐसी बहुत-सी संस्थाएँ है जो अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियोंमें संघर्ष कर रही है और जहाँ अभावग्रस्त रहने के बावजूद शिक्षकोंका अपने-आपमें और अपने उद्देश्यकी महत्तामें विश्वास है। मैं जानता हूँ कि अन्ततः वे संस्थाएँ फूले-फलेंगी और आज वे जिस अग्नि-परीक्षामें से गुजर रही है, उसमें से वे और भी सशक्त होकर, कुन्दन बनकर निकलेंगी। जनताको मेरी सलाह है कि वह ऐसी संस्थाओंको निकटसे देखे-परखे और यदि ये उसे आवश्यक और योग्य जान पड़ें तो इनकी सहायता करे।

मैंने जिन संस्थाओंका निरीक्षण किया है, उनमें से बहुतोंमें कताईको स्थान देनेकी प्रवृत्ति महज इसलिए देखी गई है कि इसका आजकल एक फैशन-सा हो गया है। इस तरह न इस महान् उद्देश्यके साथ और न विद्यार्थियोंके साथ ही न्याय होता है। अगर कताईको एक अनिवार्य धन्धेके रूपमें फिरसे जीवित करना है तो उसपर गहराईसे विचार करना चाहिए और उसकी शिक्षा उसी तरह समुचित और शास्त्रीय पद्धतिसे दी जानी चाहिए जिस तरह किसी भी सुव्यवस्थित स्कूलमें अन्य विषयों की शिक्षा दी जाती है। तब चरखे बिलकुल दुरुस्त और अच्छी हालतमें होंगे, इन स्तम्भोंमें मैं उनकी उपयुक्तता परखने के लिए समय-समयपर जो कसौटियाँ बताता रहा हूँ उन सभीपर वे खरे उतरेंगे और जिस तरह विद्यार्थियोंके दूसरे अभ्यासोंको प्रतिदिन नियमपूर्वक जाँचा जायेगा या जाँचना चाहिए उसी तरह उनके चरखे-सम्बन्धी अभ्यासको भी जाँचा जायेगा और जबतक सभी शिक्षक कताई-कलाको, उससे सम्बन्धित तमाम बारीकियोंके साथ सीख नहीं लेंगे तबतक यह सब होना असम्भव है। कताई-विशेषज्ञ रखना तो पैसेकी बरबादी है। अगर कताईकी शिक्षा कारगर ढंगसे देनी हो तो हरएक शिक्षकको कताई विशेषज्ञ बनना होगा और अगर शिक्षकको कताईकी आवश्यकतामें विश्वास हो तो प्रतिदिन सिर्फ दो घंटे देकर वह बिना किसी कठिनाईके इस कलाको महीने-भरमें सीख सकता है। लेकिन, मैंने कहा है कि अगर लड़के और लड़कियाँ अपने-अपने घरोंपर चरखका प्रयोग करना चाहें तो, इस विचारसे कि वे उस योग्य बन सकें। उन्हें चरखा चलानेकी शिक्षा दी तो जा सकती है, किन्तु कक्षामें बैठकर कताई करनेकी दृष्टिसे तो तकली सबसे कम खर्चका और लाभदायक यन्त्र है। पांच सौ बालक प्रतिदिन एक नियत समयपर आधा घंटा लगाकर प्रति बालक पचीस गज के हिसाबसे सूत कातें, यह बात