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शिक्षित वर्गोंके विषयमें

इससे तो हर हालतमें अच्छी ही है कि पचास लड़के अन्तराल देकर उसी आधे घंटेमें प्रति लड़का सौ गजके हिसाबसे सूत निकाले। पांच सौ लड़के तकलीपर प्रति दिन १२, ५०० गज सूत कात लेंगे, जबकि पचास लड़के चरखेपर सिर्फ ५, ००० गज सूत कत पायेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५–१०–१९२५
 

१८२. शिक्षित वर्गोंके विषयमें

मेरी बिहार-यात्राके दौरान एक भाईने मुझे निम्नलिखित प्रश्न इन स्तम्भोंमें उत्तर दिये जानेके अभिप्रायसे भेजें हैं :

आपकी शिकायत है कि भारतके शिक्षित वर्गोंके लोग आपके कहे अनुसार नहीं चलते और अब आपका उनपर वश नहीं है। क्या इसका कारण यह नहीं है कि आपने पहले आन्दोलनके आरम्भमें ही उनकी उपेक्षा कर दी और उनसे वशके बाहर त्याग करनेको कहा?

मुझे कभी ऐसी कोई शिकायत करनेकी अपनी बात याद नहीं आती कि शिक्षित वर्गके लोग मेरे कहे अनुसार नहीं चलते। अगर मैंने कुछ कहा ही है तो अपनी ही इस कमीकी बात कही है कि मैं समस्त शिक्षित वर्गको ही अपनी वास्तविक स्थितिका औचित्य नहीं समझा सका हूँ। मैंने शिक्षित वर्गकी कभी उपेक्षा की हो, ऐसा कहना तो मुझे बिलकुल गलत समझना है। क्या कोई सुधारक कभी किसीकी उपेक्षा करता है? वह तो लोगोंको सिर्फ किसी सुधार-विशेषमें शामिल होनेको ही आमन्त्रित करता है; और उस सुधारका आरम्भ वह खुद अपनेको तदनुसार ढालकर करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने आपको समाजसे विलग कर लेता है और जबतक समाज उसके सुधारकी खूबीको नहीं समझ पाता, उसे इसी अवस्थामें रहना पड़ता है। अगर समाज किसी सुधार-विशेषको हृदय या बुद्धिके धरातलपर समझ या सराह नहीं पाता तो इसमें समाजका कोई दोष नहीं है। सुधारक जिस समाजमें रहता है, उस समाजमें अगर उसे ऐसे लोग नहीं मिलते जो उसके सुधार-कार्यको अपना ले, तो स्पष्ट ही उस सुधारमें या स्वयं उस सुधारकमें कोई कमी है। मैं समझता हूँ, यह बात स्वीकार कर ली जानी चाहिए कि यह नया आन्दोलन जिन-जिन त्यागोंकी अपेक्षा रखता था, वे एक वर्गके रूपमें शिक्षित लोगोंके लिए असम्भव ही थे, फिर भी उनमें से जो थोड़े-बहुत लोग अपवाद-स्वरूप आगे आये, क्या उन्होंने अद्भुत बलिदान करके नहीं दिखाया?

अगर मुझे ठीक याद है तो आन्दोलनके प्रारम्भमें आपने ऐसी घोषणा की थी कि यदि सर्वसाधारण मेरे साथ हो तो मैं बुद्धिजीवी वर्गकी कोई परवाह नहीं करता। अगर यह बात सही हो तो अब क्या आपके विचार बदल गये हैं? यदि सचमुच आपके