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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विचार बदल गये हों तो बुद्धिजीवी वर्गको अपने विचारोंसे सहमत करने के लिए आप क्या कर रहे हैं या क्या करने का इरादा रखते हैं?

मैं तो यही समझता हूँ कि मैंने कभी ऐसी कोई 'घोषणा' नहीं की कि "मैं बुद्धिजीवी वर्गकी कोई परवाह नहीं करता।" किसी सुधारकके लिए ऐसा कहने या करनेकी गुंजाइश ही नहीं होती। मैंने यह जरूर कहा था—और आज भी मेरा यही विचार है—कि अगर सर्वसाधारण असहयोगकी भावनाको ग्रहण कर ले तो शिक्षित वर्गोंकी सहायताके बिना भी स्वराज्य प्राप्त हो सकता है। जहाँतक सर्वसाधारणका सम्बन्ध है, इस दिशामें उसे जो मुख्य कार्य करना है, वह है विदेशी और मिलके बने सूतसे तैयार कपड़े के साथ अपना सारा सम्बन्ध तोड़कर अपने हाथसे कते सूतसे अपने ही हाथों बुने कपड़ेसे निकटतम सम्बन्ध जोड़ना। किन्तु, दुर्भाग्यकी बात है कि यह बहुत साधारण दिखनेवाला काम भी शिक्षित वर्गकी सहायताके बिना नहीं किया जा सकता। मैं कृतज्ञतापूर्वक इस बातको पूरी तरह स्वीकार करता है कि अगर सैकड़ों शिक्षित स्त्री-पुरुष चरखा और खादीके सन्देशके प्रचारमें मेरी सहायता न कर रहे होते तो इसने जितनी प्रगति की है, उतनी प्रगति यह नहीं कर पाता। यदि प्रगतिकी रफ्तार जितनी तेज हो सकती थी उतनी तेज नहीं है तो उसका भी कारण यही है कि एक समूह के रूप में शिक्षित वर्ग खादी आन्दोलनसे किनाराकशी करके बैठा हुआ है।

क्या आप सचमुच ऐसा मानते हैं कि सर्वसाधारण आपके साथ हैं, या वह महात्मा कहकर आपकी प्रशंसा-भर करता रहता है और आपकी सलाहकी ओर कोई ध्यान नहीं देता?

निश्चय ही मैं ऐसा मानता हूँ कि सर्वसाधारण मनसे पूरी तरह मेरे साथ है। लेकिन, जिस चीजको उसका मन ठीक कहता है, उसे करनेका उसमें उत्साह और साहस नहीं है। इस सम्बन्धमें मैंने हजारों लोगोंसे पूछताछ की है और सभीने निरपवाद रूपसे लगभग यही कहा है : "हम क्या कर सकते हैं? हम आपकी बात अच्छी तरह समझते हैं। लेकिन, हममें उसे करनेकी शक्ति नहीं है। आप हमें उसके लिए शक्ति दीजिए।" अगर ऐसी शक्ति देना मेरे बसमें होता तो अबतक सर्वसाधारणका कायाकल्प हो चुका होता। लेकिन, मैं जानता हूँ कि इस विषयमें मैं कितना लाचार हूँ। उनका मुझसे शक्तिको पानेकी आशा करना व्यर्थ है; शक्ति तो उन्हें सिर्फ ईश्वर ही दे सकता है।

क्या आप समझते हैं कि जनताको इस तरह संगठित किया जा सकता है, कि वह पूरी तरहसे सामूहिक सविनय अवज्ञाके योग्य बन जाये? क्या उसके विषयमें बराबर ऐसा खतरा नहीं बना रहता कि वह किसी भी क्षण उन्मत्त होकर अपने अत्युत्साह और अनुशासनहीनताके कारण किसी भी राजनीतिक आन्दोलनको निष्फल बना दे सकती है?

यद्यपि जो-कुछ दिखाई देता है वह इसके विपरीत ही मालूम होता है, फिर भी मैं निस्सन्देह ऐसा मानता हूँ कि सर्वसाधारणको सामूहिक सविनय अवज्ञाके लिए