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१८३. यूरोपीयन सभ्यता

डेन्मार्कके एक मित्रने मुझे 'गैड्स डानस्के मैगासिनमें' छपे एक लेखसे लिये गये कुछ अंशोंका अनुवाद भेजा है। उन्होंने इन अंशोंका शीर्षक "यूरोपीय सभ्यता और गांधी" दिया है। 'यंग इंडिया' में उस शीर्षकमें से मैंने अपना नाम निकाल दिया है, क्योंकि मैंने उन उद्धृत अंशोंमें से वे हिस्से भी निकाल दिये हैं, जिनका सम्बन्ध मेरे विचारोंसे था। मेरे विचारोंसे तो 'यंग इंडिया' के पाठक अवगत ही है। प्राप्त अनुवाद इस तरह है :[१]

इन अंशोंमें जो चित्र उपस्थित किया गया है वह बहुत भयावह है। किन्तु कदाचित् वह तत्त्वतः सही है। मेरे विचारसे, इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि यूरोपके राष्ट्र जो-कुछ कर रहे है संक्षेपमें उसे ईसा मसीह के पर्वत-प्रवचनके विपरीत आचरण कहा जा सकता हैं। हमें यूरोपके शस्त्रास्त्रोंकी चमक-दमक और चकाचौंधमें नहीं बह जाना चाहिए, यह मेरी चेतावनी है और इसपर जोर देनेके लिए ही मैने इन अंशोंको यहाँ छापा है। यदि उक्त चित्र समस्त यूरोपका चित्र होता तो वह यूरोप और दुनिया दोनोंके लिए दुर्भाग्यकी बात होती। सौभाग्यसे यूरोप में ऐसे स्त्री-पुरुषोंका एक खासा बड़ा समुदाय है, जो युद्धोन्माद और भौतिक सुख-समृद्धिके लिए मची हुई भाग-दौड़के विरुद्ध अपनी पूरी शक्ति लगाकर संघर्ष कर रहे हैं। ऐसी आशा करने के लिए पर्याप्त कारण है कि यह समुद्राय दिन-प्रतिदिन संख्यामें बढ़ रहा है और उसके प्रभावका भी विस्तार हो रहा है। यूरोपके मनीषी लोग वहाँकी भौतिकवादिताके इस अतिरेककी तीव्रतम शब्दोंमें भर्त्सना कर रहे हैं और उसको नियन्त्रणमें लानेके लिए बड़े साहसके साथ संघर्ष कर रहे हैं। मेरी यही कामना है कि भारत उस भौतिकवादिताके अतिरेकके प्रवाहमें बहकर इस नवजागरणके मार्गमें बाधक होनेका भागी बननेके बजाय, इस नवजागरणमें शामिल होकर इसे आगे बढ़ानेका सौभाग्य प्राप्त करे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५–१०–१९२५
 
  1. अनुवादके पाठके लिए देखिए, परिशिष्ट ३।