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जिस तरहसे देखिए, भारतकी परिस्थितियाँ ऐसी है कि यहाँ हाथ-कताईके मुकाबले कोई दूसरा सहायक धन्धा टिक ही नहीं सकता। यह चीज कितनी महत्त्वपूर्ण है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। किन्तु इसका महत्त्व इस बातमें निहित नहीं है कि इसकी बदौलत मुट्ठी-भर लोग खूब पैसा कमा सकते हैं; वह तो इस तथ्यमें निहित है कि इससे करोड़ों लोगोंको तत्काल एक लाभप्रद धन्धा मिल जाता है। इसलिए एकमात्र यही ऐसा सहायक धन्धा है, जिसको यहाँ सफलतापूर्वक संगठित किया जा सकता है। इस तरह पशुपालन अपने आपमें चाहे जितना अच्छा धन्धा क्यों न हो वह भारतके लिए सर्वोत्तम सहायक धन्धा नहीं है। यहाँ तो ऐसा धन्धा हाथसे सूत कातना ही है।

शारीरिक श्रमकी आवश्यकता

एक बहुत ही सजग और तत्पर भाईने लिखा है :

२० अगस्तके 'यंग इंडिया' में आपका जमशेदपुरको सभामें दिया गया भाषण[१] प्रकाशित हुआ है। उसके पहले पैरेमें शारीरिक श्रमको बौद्धिक श्रमसे अधिक महत्त्वपूर्ण बताने के बाद, रिपोर्टके अनुसार, आप कहते हैं : 'सम्पूर्ण हिन्दू-धर्म ऐसे ही विचारसे ओतप्रोत है।' जो श्रम किये बिना खाता है, वह पाप खाता है, वह सचमुच चोर है। यह भगवद्गीता के एक श्लोकका शब्दार्थ है। अब इस सवालको तो अलग रहने दीजिए कि गीतामें (तथाकथित) शारीरिक श्रम और (तथाकथित) मानसिक श्रमके बीच ऐसा कोई भेद किया गया है या नहीं, लेकिन मैं यह कह सकता हूँ कि यदि गीता के किसी भी अंशका वह अर्थ लगाया जा सकता है जो (रिपोर्ट के अनुसार) आप कहते हैं कि गीताके एक श्लोकका शब्दार्थ है तो वह अंश है गीताके तीसरे अध्यायके श्लोक १२ और १३। इस प्रकार प्रथम तो अपने 'श्रम' विषयक विचारको पुष्टिके लिए आपने एक नहीं, बल्कि दो श्लोकोंका सहारा लिया है। दूसरे, इनमें से किसी भी श्लोकमें शारीरिक अथवा मानसिक किसी प्रकारके 'श्रम' का कोई उल्लेख नहीं है। पहले श्लोकमें यज्ञके कर्त्तव्यकी व्याख्याके रूपमें ऐसा जरूर कहा गया है कि मनुष्यको दैवी शक्तियोंकी कृपासे जो-कुछ मिला है, उसका उपभोग वह उसे दैवी शक्तियोंके साथ बांटकर या उन्हें अपित करके करे और अगर वह ऐसा नहीं करता "तो वह सचमुच चोर है।" दूसरे श्लोकमें कहा गया है कि 'जो लोग सिर्फ अपने लिये ही भोजन पकाते हैं, वे पाप खाते हैं।' सो खुद आपके ही पत्रमें म॰ दे॰ द्वारा लिखी रिपोर्ट के अनुसार 'गीता' के 'एक श्लोकका जो शब्दार्थ मेंने बताया है, उससे यह बात काफी दूर पड़ती है। आशा है, सुविधानुसार आप इस बातपर ध्यान देंगे।

बारीकीसे देखा जाये तो मानना पड़ेगा कि पत्र-लेखकका यह कथन ठीक ही है कि म॰ दे॰ की रिपोर्ट के अनुसार मैंने जो शब्दार्थ बताया है, वह एक श्लोकका

 
  1. देखिए "भाषण : इंडियन एसोसिएशन, जमशेदपुर", ८–८–१९२५।