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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहें। उनको संख्याका मोह था, इससे उनके दिलको आघात पहुँचा। हमारी तो यह प्राचीन प्रथा है कि चाहे किसी विद्यालयमें एक ही विद्यार्थी और एक ही अध्यापक हो किन्तु यदि दोनोंमें एक दूसरेपर श्रद्धा हो; गुरु समझे कि विद्यादान अच्छा है और विद्यार्थी समझे कि यह मेरे उत्थानके लिए है, इससे मेरा इहलौकिक और पारलौकिक जीवन बनेगा तो वह विद्यालय चलता रहना चाहिए। यही बात इस विद्यापीठपर भी लागू होती है। मैं श्री भगवानदासजी और श्री शिवप्रसादजीसे कहना चाहता हूँ कि आप लोग भी संख्याके बारेमें चिन्ता न करें। कांग्रेसके आदेशका बन्धन तो अब दूर ही हो गया है। यदि आप लोगोंकी भीतरी आवाज कहे कि इसको चलाना चाहिए तो इसे जीवन अर्पित कर दिया जाये। संस्कृत श्लोक भी है कि जो काम आरम्भ करो उसके लिए जीवन दे दो। परन्तु यह अर्द्ध सत्य है। क्या कोई शराब पीना आरम्भ करे तो जीवन-भर पीता ही चला जाये? शास्त्रने यह बात श्रद्धा दृढ़ करने के लिए कही है। अगर आप अपने सिद्धान्तपर कायम है और नया प्रयोग करना चाहते है तो जनताके प्रतिकूल रहनेकी भी कुछ चिन्ता न करें। यदि विद्यापीठसे पाँच अथवा एक भी विद्यार्थी ऐसा निकल सके जो अपना सारा जीवन हिन्दुस्तानके लिए अर्पण कर दे तो समझ लीजिए कि विद्यापीठ सफल हो गया। क्योंकि हिन्दुस्तानके लिए जीवन अर्पण करनेकी शिक्षा देना ही विद्यापीठका ध्येय है। जबतक ध्येय सामने है तबतक विद्यार्थी ५ हैं या १ इसकी कोई फिक्र नहीं करना। ३५ वर्षोंके अपने सार्वजनिक जीवन में यह में एक नहीं अनेक बार अनभव कर चका है कि यदि हमारी श्रद्धा दृढ़ रहे और उसके साथ हम प्रयत्न करते जायें तो लोग अधिकाधिक संख्यामें हमारे साथ हो जाते हैं। इसलिए आप सिद्धान्तको समझकर चलते रहे; इसीमें हिन्दुस्तानका भला है। विद्याथियोंसे प्रार्थना है कि वे भी इस विद्यापीठमें संख्याके कम ज्यादा होनेकी चिन्ता न करें; आजीविकाकी भी चिन्ता न करें। आजीविकाके लिए गारंटी नहीं दी जा सकती; फिर भी शरीरसे श्रम और सेवा करें तो खाने पीने-भरके लिए मिल ही जायेगा; मौज-शौक और आभूषण आदिके लिए नहीं मिलेगा। परन्तु जो विद्यार्थी यह सोचते हैं कि उन्हें पढ़-लिख लेनेके बाद दूसरोंकी तरह अधिक पैसा कमानेके लिए नौकरी करनी है, उनका यहाँसे भाग जाना ही अच्छा है। यहाँका ध्येय अच्छी तरह समझ कर ही यहाँ रहें।

मैंने अपने कार्यक्रममें चरखेको प्रधान स्थान दिया है, इसके लिए मुझे कोई संकोच नहीं होता। अगर सारा हिन्दुस्तान चरखा चलाना छोड़ दे, तो मुझे रोज ८–१० घंटे चरखा चलानेको मिल जायेंगे। क्योंकि तब लोगोंके सामने बकवास करनेसे में बच जाऊँगा। मेरे नजदीक देशको दरिद्रतासे छुटकारा दिलानेवाली चरखेको छोड़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। जहाँ चरखे चलने लगे है वहाँ लोगोंके जीवनमें परिवर्तन हो रहा है। यह मैने बिहारके दौरेमें देखा है। आप लोग आध घंटे, पाव घंटे ही चरखा चलायें और चरखा चलाते-चलाते हिन्दुस्तानका ध्यान करें। आप ईश्वरका नाम लेकर, मुसलमान खुदाका नाम लेकर चरखा चलायें तो देखेंगे कि