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१९१. भाषण : अभिनन्दन-पत्रोंके उत्तरमें

सीतापुर
१७ अक्तूबर, १९२५

. . .महात्मा गांधीने कहा कि मैं इन दो सभाओं[१] द्वारा अभिनन्दन-पत्र पानेके योग्य नहीं हूँ; क्योंकि मैं इन दोनों सभाओंका आलोचक रहा हूँ। इनकी टीका-टिप्पणीके सिवाय मैंने कुछ नहीं किया है। लेकिन मैं यह कह सकता हूँ कि मैंने इनको आलोचना सच्चाईके साथ और सहानुभूतिपूर्वक एक मित्र तथा हितैषीके नाते उनको मदद पहुँचानेकी इच्छासे की है। हिन्दू-सभाकी सच्ची सेवा करने के लिए सच्चा हिन्दू होना जरूरी है। हिन्दू धर्म सनातन धर्म है। वेदों तथा हिन्दू धर्मको में अनादि मानता हूँ। सत्य भी अनादि है। इसलिए मुझे हिन्दू धर्म और सत्यमें कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। जो असत्य है उसका हिन्दू धर्मसे सम्बन्ध नहीं हो सकता। मैं किसी भी दशामें सत्यका त्याग नहीं कर सकता। चाहे कितना भी विरोध हो, चाहे मेरे खिलाफ हजारों लोग तलवारें उठाकर खड़े हो जायें, फिर भी में सत्य ही कहूँगा। सत्य और अहिंसामें कोई अन्तर नहीं है। एक हिन्दूके रूपमें मैं किसीके विरुद्ध अपने हृदयमें द्वेषभावको पनपने नहीं दे सकता। यदि मेरा कोई शत्रु भी हो तो मैं उसे प्यारसे ही जीतूँगा। अगर हिन्दू लोग अपने धर्मको आगे बढ़ाना चाहते हों और उसकी सेवा करनेको इच्छुक हों तो उसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि वे अहिंसाके मार्गपर चलें। अपने धर्मका पुनरुद्धार करने के लिए अवश्य कार्य करें, किन्तु अपने मुसलमान भाइयोंके प्रति उनके हृदयमें तनिक भी दुर्भावना नहीं होनी चाहिए।

कुछ लोगोंका ऐसा विचार है कि मैं अहिंसाके नामपर कायरताका प्रचार कर रहा हूँ। यह बिलकुल गलत है। बेतियाके हिन्दुओंने मुझे गलत समझा। यदि वे अपनी माँ-बहनकी इज्जतके लिए लड़ते हुए मर जाते है, तो मैं इसे अच्छा समझूगा। और यदि ऐसा मौका आनेपर वे भाग खड़े होते हैं तो यह निरी कायरता ही होगी। और इससे अधिक लज्जाजनक बात और कुछ नहीं हो सकती। हिंसाका मुकाबला अहिंसासे करना तो अच्छी चीज है। लेकिन कायरता अच्छी चीज नहीं है। सच्ची अहिंसाके लिए सच्ची बहादुरीकी जरूरत होती है। हिन्दू-संगठनके लिए चरित्र-निर्माण सबसे ज्यादा जरूरी है। जबतक यह नहीं होता और जबतक हर हिन्दू सत्य और सच्चरित्रतापर आरुढ़ नहीं होता, तबतक सच्चा संगठन असम्भव है। उस हालतमें हिन्दू धर्म कहींका नहीं रह जायेगा।

 
  1. हिन्दू सभा और वैद्य सभा।