पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/३९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

क्रूरता है। अस्पृश्यताको मैं हिन्दू धर्मकी विकृति मानता हूँ। इससे धर्मकी सुरक्षा नहीं होती; बल्कि उसकी गति रुक जाती है। सूतक आदि नैमित्तिक अस्पश्यता एक अलग बात है; जो लोग उसका जितना पालन करना चाहते हैं, करते हैं। सब जातियाँ एक ही प्रमाणमें उसे नहीं मानतीं। इसे शौचके नियमोंमें सम्मिलित माना जाता है। ऐसे थोड़े-बहुत नियम संसारमें सब जगह पाये जाते हैं। किन्तु अन्त्यजोंसे सम्बन्धित अस्पृश्यता एक प्रकारका निर्दय बहिष्कार है। यह प्रथा जिस समय प्रचलित हुई उस समय इसके चाहे जितने भी सबल कारण क्यों न रहे हों, आज इसके लिए कोई भी कारण नहीं है। इसीसे यह क्षय रोगकी भाँति हिन्दू धर्मके शरीरको खाये जा रही है।

जिस तरह यदि मकानके पुराने और निरर्थक भागोंको गिरा नहीं दिया जाता तो वे उसके अन्य भागोंको कमजोर बना डालते है उसी तरह अस्पृश्यताकी दीवार रोटी-बेटीकी आन्तरिक मर्यादाकी रक्षा करनेके बदले उसे कमजोर बनाती है। आज हम जिस तरह अस्पृश्यताको दोष मानते है उसी तरह रोटी-बेटी व्यवहारकी मर्यादाको भी दोष माना जाने लगा है और उसपर आपत्ति की जाने लगी है। रोटी-बेटी व्यवहारमें निहित नियम ही तो योग्य है। जो मांसाहारी हों उनके यहाँ निरामिष व्यक्तिका भोजन करना धार्मिक दृष्टिसे अयोग्य बात है। लेकिन जिस नियमका हम पालन करते हों और दूसरे न करते हों उन्हें अस्पृश्य मानने में मैं कोई धर्म नहीं देखता; ऐसे धर्म का पालन नहीं किया जा सकता। यदि कोई उसका पालन करना चाहे तो उसे सारे संसारको अस्पृश्य मानना पड़ता है

अस्पृश्यता निवारणके साथ जातिभेदका कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन एक बड़े सुधारसे दूसरा सुधार अपने आप पैदा होता है। इसी नियमके अनुसार सुधारकोंकी दृष्टि जातिभेदकी ओर भी गई है। मैं उप-जातियोंका नाश चाहता हूँ और वह हो रहा है। लेकिन मैं इनमें अस्पश्यता-जैसा दोष नहीं देखता है। इसमें असुविधा है और इससे कुछ अर्थों में सामाजिक व्यवहारमें अड़चनें आती हैं। लेकिन इन सुधारोंके प्रति धैर्यसे काम लिया जा सकता है; अस्पृश्यताके प्रति नहीं। इसी कारण इन दोनोंको अलग रखने और समझनेकी बड़ी आवश्यकता है।

स्वच्छ अन्त्यजके हाथों स्वच्छतापूर्वक भरा हुआ पानी लेने में कोई हानि नहीं देखता। जिस तरह अन्य वर्णोके लोग घाटी,[१] कूनबी,[२] आदिके हाथका पानी लेने में सामान्यतया कोई हानि नहीं देखते, ठीक वही नियम अन्त्यजोंपर भी लागू होना चाहिए। सामान्य रूपसे जो आचार तथाकथित उच्च जातिके लोग अन्य जातियोंके सम्बन्धमें पालते हैं वही अन्त्यजोंके सम्बन्धमें भी पाले जाने चाहिए। दक्षिणमें जहाँ ब्राह्मणकी दृष्टिमें ब्राह्मणेत्तर मात्र अस्पृश्य हैं, वहाँ तो यह विकृतिकी भी विकृति हो चुकी है। उसके पक्षमें खड़ा होनेवाला कोई व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता; और दक्षिणमें धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय नष्ट होता जा रहा है।

 
  1. गुजरातमें एक किसान जाति।
  2. महाराष्ट्रमें एक जाति।