पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/३९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

का स्वरूप ग्रहण कर लेता है तब तो वह जातिका नाशक ही बन जाता है। इसीसे मैंने मारवाड़ी भाइयोंको सलाह दी है कि बहिष्कारके शस्त्रका कदापि उपयोग न करें। जबतक पंच ज्ञानी, स्वार्थहीन और प्रेममय नहीं बनते तबतक उन्हें बहिष्कारका विचार ही छोड़ देना चाहिए। सुधार करनेवालेको सुधार अवश्य करने दिया जाये। उसमें जातिको क्या हानि पहुँच सकती है? जिस वस्तुको समस्त संसारने अनीतिके रूपमें माना हो उसके विरोधमें कुछ उपाय करनेकी बात तो समझी जा सकती है। जहाँ एक व्यक्ति धर्म समझकर अन्त्यजका स्पर्श करता हो, दूसरा अपनी पुत्रीको पूर्ण वय प्राप्त होनेपर ही ब्याहना चाहता हो, तीसरा जो बाल-विधवाकी शादी करनेको कटिबद्ध हो और चौथा अपने पुत्रके लिए उसी वर्णकी उपजातिमें से लड़की लेनेकी तैयारीमें हो, तो वहाँ इन सबको जातिसे बहिष्कृत करनेकी क्या बात हो सकती है? इनका बहिष्कार करनेसे सुधार-मात्र रुक जायेंगे और धर्मकी, जातिकी और देशकी उन्नति भी अवरुद्ध हो जायेगी। बहिष्कारका ऐसा दुरुपयोग कदापि नहीं किया जा सकता, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं जितना-जितना विभिन्न प्रान्तोंमें जाता हूँ, मुझे विधवाओंके दुःखकी गाथा, बाल-विधवाओंके साथ होनेवाली अनीति तथा कोमल वयके बालकोंके विवाहके विषयमें उतना ही ज्यादा सुननेको मिलता है। यह सब जानकर मैं भयभीत हो उठता हूँ। ऐसे हिन्दू संसारकी सन्तान यदि वीर्यहीन हो तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? पंच यदि अपने धर्म और मर्यादाको समझें तो समाजसे ऐसी गन्दगी दूर करनेवाले सुधारकोंको प्रोत्साहन देना उनका कर्त्तव्य है।

इस सम्मेलनके सम्मुख मैंने जिस तरह सुधारोंकी बातचीत की थी उसी तरह गोरक्षाके सम्बन्धमें भी कहा था। दिन-प्रतिदिन जैसे-जैसे मुझे गोशालाओंका अनुभव होता जाता है वैसे-वैसे मैं देखता हूँ कि समाजको उनका पूरा लाभ नहीं मिलता। नौ करोड़ रुपयोंका मुर्दार चमड़ा प्रतिवर्ष जर्मनी चला जाता है तथा हम मारे गये जानवरोंके चमड़ेके जूते पहनते है और फिर भी मानते है कि हम अपने धर्मका पालन करते हैं। यह कितने दुःखकी बात है? हिन्दुस्तानमें सबसे अधिक गोशालाएँ मारवाड़ियों द्वारा संचालित होती है। वे लोग ही गोरक्षाके नामपर सबसे अधिक दान दे रहे हैं। लेकिन इस दानका उपयोग समझदारीके साथ नहीं होता इसीसे गाय-बैल आदिका कटना घटनेके बजाय बढ़ता जाता है और पशु-धनका ह्रास होता जाता है। यह कैसा अन्धेर है? अपने व्यापारमें तो मारवाड़ी भाई ऐसी गफलत नहीं करते। फिर गोशालाओंको दान देते समय वे उदासीन क्यों रहते हैं? क्या धर्ममें कार्य-दक्षता और व्यवहार-बुद्धिको आवश्यकता नहीं है? कत्ल किये गये पशुओंके चमड़ेके उपयोगको कम करनेका उपाय उनके हाथमें है। मरे हुए पशुओंके चमड़ेका व्यापार केवल परोपकार बुद्धिसे हाथमें लेना उनका धर्म है। धर्मके नामपर और केवल भ्रमवश होकर गोशालाओंमें मरनेवाले जानवरोंके चमड़ेका उपयोग न करके हम गोवधको उत्तेजन देते हैं। हम इन मृत जानवरोंके चमड़ेका उपयोग ही न करें तब तो अलहदा बात है। लेकिन गोरक्षाका ऐसा अर्थ कोई हिन्दू नहीं करता। इतना ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्ममें अपने-आप मृत पशुके चमड़ेके उपयोगकी छूट है। जैसे