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मारवाड़ीयोंके सम्बन्धमें

मारवाड़ियोंके सम्बन्धमें हम गायकी पूजा करते है, किन्तु उसके दूधके उपयोगको पवित्र मानते हैं और उसके उपयोगको उत्तेजन देते हैं। मैं इस वस्तुके सम्बन्धमें तटस्थ रूपसे विचार कर सकता हूँ; क्योंकि मैं गाय-भैसके दूधका बिलकुल भी उपयोग नहीं करता और चमड़ेका तो बहुत ही थोड़ा उपयोग करता हूँ। मैंने अनुभवसे देखा है कि यदि हम गायभैसकी रक्षा करना चाहते हैं तो हमें उनके दूध, चमड़े और खाद आदिका पूरा-पूरा उपयोग करना पड़ेगा। ऐसे समयकी कल्पना की जा सकती है, जब हम [अहिंसाके विचारसे] दूध तकका उपयोग बन्द कर देंगे, हम उस परिस्थितिका स्वागत करेंगे। लेकिन जब ऐसा समय आयेगा तब हम गोशाला रखना बन्द कर देंगे और जिस तरह प्रकृति अपने नियमानुसार ऐसे अनेक जानवरोंकी रक्षा करती है, जिन्हें हम पालते नहीं हैं, उसी तरह वह गाय-भैंसोंकी भी रक्षा करेगी। फिलहाल तो मैं पाले हुए और पालने के लिए उपयोगी जानवरोंकी रक्षाके तत्त्व गोरक्षामें देखता हूँ। इस रक्षाका अर्थ यह है कि भोजन अथवा मनोरंजनके निमित्त हम उनकी हत्या न करें और जबतक वे जीवित रहें तबतक जितने यत्नसे हम अपने शरीरकी रक्षा करते हैं उतने ही यत्नसे उनके शरीरकी भी रक्षा करें। इसे साध्य बनाने के लिए यदि उनके मरनेके बाद हम उनके चमड़े आदिका उपयोग नहीं करते तब तो उनकी हत्यामें दिनप्रतिदिन वृद्धि ही होती जायेगी। इसीसे मैं गो-सेवक मारवाड़ी भाइयोंसे प्रार्थना करना चाहता हूँ कि वे अपने दानमें अपनी बुद्धि और व्यापार-शक्तिका उपयोग करें। उनके कब्जेमें जितनी गोशालाएँ है उन सब गोशालाओंका आदर्श बदलकर वे एक ही वर्षके अन्दर लाखों गायों और भैंसोंको बचा सकते हैं और कालान्तरमें गाय-भैंस आदिकी हत्या-मात्रको वे बिना किसीसे अनुनय-विनय किये रुकवा सकते हैं। जिन्हें गोमांस आदि खाने में कोई बाधा नहीं है वे जबतक गोमांस सस्ता रहेगा तबतक हिन्दुओंकी भावनाकी खातिर, उसका त्याग नहीं करेंगे। उसके सस्ते रहते हुए भी त्याग करनेके लिए बहुत ऊँचे प्रकारको भावनाकी जरूरत है। लेकिन यह तो धर्मभावना हुई; यह भावना बलात्कारसे प्रकट नहीं हो सकती और न विनय भावसे। इसीसे जो बात मैने मारवाड़ी भाइयोंसे कही है, वही बात अन्य हिन्दुओंसे भी कहना चाहता हूँ। चर्मालय चलाने के प्रति अपनी अरुचि न प्रकट करें। इतना ही नहीं, वरन् मैंने कहा है कि उस मर्यादाके अन्दर वैसे चर्मालय चलाना गोशालाका अनिवार्य अंग समझना चाहिए।

मारवाड़ी भाइयोंने जैसे गोरक्षाको अपना खास कर्त्तव्य मान रखा है वैसे ही हिन्दी प्रचारको भी उन्होंने अपने दानकी एक दिशा माना है। उसमें भी पैसेकी जितनी आवश्यकता है उतनी ही बुद्धि की भी है। यह विषय गुजराती भाषा-भाषीको मारवाड़ी भाइयोंके समान दिलचस्प नहीं लग सकता, यह मैं समझता हूँ; तथापि गुजराती भी हिन्दीके प्रचारमें अधिकसे-अधिक रस लेने लगें, इस दृष्टिसे में नवजीवन में इसकी चर्चा कर देता हूँ। हिन्दी प्रचारके तीन भाग हो सकते हैं :

एक तो जहाँ हिन्दी मातृभाषा है वहाँ उसका विकास करें। हिन्दी जाननेवालोंको इसे विशेषकार्य मानना चाहिए। उनमें आज एक भी रवीन्द्रनाथ नहीं है, इसके लिए मैं अपना दुःख प्रकट करने के अलावा और कुछ नहीं कहना चाहता।