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बहिष्कार बनाम रचनात्मक कार्य

प्रतिबन्ध हटा लिया है। कांग्रेस विधानमण्डलोंमें प्रवेशकी निन्दा करनेके हेतु अपने नामका इस्तेमाल करनेका निर्देश करती है। और अन्तम जो लोग इस तरह के राजनीतिक कार्यमें विश्वास रखते हैं, उन्हें वह अपना काम उत्साहके साथ करनेके लिए प्रोत्साहित करती है। लेकिन वह किसी भी कांग्रेसीकी अन्तरात्मापर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाती। बाह्य सहायताके अभावमें जिन लोगोंका उत्साह ठण्डा पड़ जाता है, निश्चय ही उन्हें अपने आपपर कोई भरोसा नहीं होता। फिर पत्र-लेखक महोदय भूल जाते है कि कांग्रेसने विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार छोड़ा तो नहीं ही है, वह उक्त बहिष्कार करनेवालोंको धन्यवाद और योग्यताका प्रमाण-पत्र भी देगी। मैं स्वयं इस प्रमाणको पाने योग्य बनने के लिए भरसक कोशिश कर रहा हूँ, और दूसरे सभी लोगोंको इस प्रयत्नमें अपने साथ शामिल होनेका न्यौता देता हूँ। यह बहिष्कार पूरी तरह सफल तभी हो सकता है जब खद्दर इतना लोकप्रिय हो जाये कि उसका उपयोग घर-घरमें होने लगे। इसी उद्देश्यसे अखिल भारतीय चरखा संघकी स्थापना हुई है। हर बहिष्कारका एक रचनात्मक पहलू होता है। यह संघ रचनात्मक दिशामें अपनी पूरी शक्तिके साथ काम करेगा। अन्य दूसरे, बहिष्कारोंका, मसलन उपाधियों, स्कूलों और अदालतोंके बहिष्कारोंका भला खद्दरके उत्पादन और खद्दरके उपयोगसे क्या वास्ता है? इन बहिष्कारोंकी खूबसूरती इसीमें है कि हर आदमी निजी तौरपर बहिष्कार करे और उसमें अकेले खड़े होनेकी हिम्मत हो। तभी इन सभी या किसी एक बहिष्कारम भाग लेनेवाला व्यक्ति स्वयं लाभान्वित होता है; और काफी बड़ी संख्यामें लोगोंके इन बहिष्कारोंमें शामिल होनेपर राष्ट्रमें स्वराज्य पानेकी योग्यता आ जाती है। कोरे उत्साह और अन्धी आस्थासे कोई स्थायी लाभ नहीं हो सकता। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि रचनात्मक कार्यक्रम हमें स्वराज्य प्राप्त करने के योग्य बना देने की असंदिग्ध क्षमता तो रखता है ही, साथ ही वह अपने आपमें एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चीज भी है।

पत्र-लेखक महोदयने अपनी सभी लौकिक सम्पत्तिका त्याग करके और अपनेको सर्वथा कंगाल बनाकर बहत उत्तम काम किया है। लेकिन वे इस त्यागमें ही सन्तोष माने। हजारों लोगोंको ऐसा ही त्याग करना होगा, तब कभी देशको स्वराज्य मिलेगा। जिसने स्वराज्यके लिए अपना सब-कुछ बलिदान कर दिया हो उसने अपनी हदतक तो स्वराज्य निश्चय ही प्राप्त कर लिया है। इसलिए किसी ऐसे व्यक्तिके लिए निराशामें भी आशा रखनेकी जरूरत ही नहीं है, क्योंकि यदि उसका त्याग स्वैच्छिक और विवेकपूर्ण है तब तो आशा ही आशा है, निराशाका सवाल ही नहीं उठता। दूसरोंमें विश्वास वही कर सकता है, जिसका अपना विश्वास प्रखर और विवेकपूर्ण हो। अतः जिसका खद्दर तथा १९२१ के कार्यक्रमके अन्य अंगोंमें विश्वास है उसे कांग्रेसकी नीति, राजनीति और कार्यक्रममें परिवर्तनोंके बावजूद अपनी जगह अडिग रहना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२–१०–१९२५