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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मामले झूठे नहीं तो अतिरंजित अवश्य होते हैं। इसलिए मैंने ऐसे अकाट्य प्रमाण मांगे हैं जो किसी भी अदालतमें स्वीकार किये जा सकते हैं। टीटागढ़का मामला सचमुच ऐसा ही है। मुसलमान एक हिन्दू लड़कीको भगा ले गये हैं। कहा जाता है कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है। और जहाँतक मुझे मालूम है अदालतके हुक्म देनेके बावजूद भी अभीतक वह उसके सामने पेश नहीं की गई है। और विशेष बात तो यह है कि लड़कीको पेश न करने में प्रतिष्ठित लोगोंका भी हाथ है। जिस वक्त में टीटागढ़में था मैंने देखा कि कोई भी उस लड़कीके बारेमें अपने ऊपर जवाबदेही लेनेको तैयार नहीं था। पटनामें भी मुझे कुछ ऐसी ही चौंकानेवाली खबर दी गई और उनके सबूत भी मेरे सामने पेश किये गये। इस समय में अधिक बारीकीमें नहीं जाना चाहता, क्योंकि उसकी पूरी तस्वीर मेरे सामने नहीं है। ऐसे मामलोंको सुनकर सोच में पड़ जाना पड़ता है। ये ऐसे मामले हैं जिनपर सभी देश-हितैषियोंको ध्यान देनेकी जरूरत है। फिर, मस्जिदोंके सामने बाजा बजानेका सवाल भी है। मैंने यह सुना है कि मुसलमानोंकी यह मांग है कि मस्जिदोंके सामने किसी भी समय धीरे या जोरसे बाजा बजाया ही न जाये। उनकी यह भी एक मांग है कि मस्जिदोंके समीपवर्ती मन्दिरोंमें नमाजके वक्तपर आरती भी बन्द कर दी जानी चाहिए। कलकत्तेमें मैंने सुना है कि प्रातःकालके समय कुछ लड़के रामधुन करते हुए एक मस्जिदके पाससे जा रहे थे, उन्हें भी रोका गया।

तो अब क्या किया जाये? ऐसे मामलोंमें अदालतोंका सहारा लेना तो सड़े बाँसपर खड़े होने जैसा है। यदि मैं अपनी लड़कीको भगा ले जाने दूँ और फिर अदालतमें जाऊँ तो अदालत मुझे संरक्षण देने में असमर्थ ठहरेगी और यदि कहीं मजिस्ट्रेट मेरी कायरताको देखकर मुझपर नाराज हो जाये, तो वह मुझे घृणाके साथ, जिसके कि मैं लायक होऊँगा, अपने सामनेसे हट जानेको ही कहेगा। अदालत साधारण जुर्मोपर ही फैसले देती है। लड़कों और लड़कियोंको, आम तौरपर भगा ले जानेका जुर्म साधारण जुर्म नहीं है। ऐसे मामलोंमें तो लोगोंसे खुद अपनी मदद आप करनेकी आशा की जाती है। अदालत तो उन्हींकी मदद करती है, जो काफी हदतक अपनी मदद आप कर सकते हैं। इसमें अदालतकी तरफसे जो सुरक्षा प्राप्त होती है, वह सिर्फ पूरक सहायता होती है। जबतक लोग निर्बल बने रहेंगे, तबतक उनकी निर्बलतासे लाभ उठानेवाले भी रहेंगे। इसलिए आत्म-रक्षाके लिए अपना संगठन करना ही एकमात्र उपाय है। ऐसे मामलोंमें यदि लोग अहिंसात्मक ढंगसे अपना बचाव करने में अपनेको असमर्थ पाते हैं और हिंसात्मक उपाय अपनाते है तो मैं उसको बिलकुल उचित मानूँगा। अवश्य ही जहाँ गरीब और लाचार माँ-बापके लड़के और लड़कियाँ भगा लिये जाते हैं, वहाँ बात जरूर बड़ी पेचीदा हो जाती है। वहाँ उसका उपाय किसी एक व्यक्तिको ही नहीं बल्कि सारी बिरादरी या जातिके लोगोंको ही ढूँढ़ना चाहिए। लेकिन जनमतको इसके लिए सुसंगठित करने के पहले, यह परम आवश्यक है कि लड़के-लड़कियोंको भगा ले जानेके सच्चे और प्रामाणिक मामलोंको प्रकाशमें लाया जाये।