पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/४१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८३
शाश्वत समस्या


बाजेका सवाल तो अपहरणके सवालकी अपेक्षा कहीं अधिक सीधा है। बाजोंका लगातार बजाना, आरती, रामधुन गाना क्या सचमुच ही धार्मिक आवश्यकता है या नहीं? यदि यह धार्मिक आवश्यकता है, तो किसी भी अदालतका हुक्म बाध्य नहीं हो सकता। परिणाम चाहे कुछ भी क्यों न हो। बाजा बजाना ही चाहिए, आरती करनी ही चाहिए और रामनामकी धुन लगानी ही चाहिए। अगर मेरा तरीका स्वीकार किया जाये तो वह यह है कि अत्यन्त विनम्र स्वभाववाले स्त्री-पुरुषोंका एक जुलूस निकले। उनके हाथों में कुछ न हो, यहाँतक कि लाठियाँ भी न हों। और अगर मान लिया जाये कि रामनामकी धुन लगानेपर ही यह झगड़ा है, तो यह जुलूस रामनाम रटता हुआ चले और शान्तभावसे मुसलमानोंको सारा गुस्सा अपने ऊपर उतार लेने दे। लेकिन अगर मेरा बताया तरीका जुलूसवालोंको पसन्द न हो, तो भी वे रामनामकी रट लगाते हुए जरूर चलें, और आगे बढ़ते हुए उन्हें हर कदमपर मुसलमानोंसे लड़ना पड़े तो लड़ें, लेकिन न रामधुन रुके और न कदम। झगड़ेके डरसे या अदालतके हुक्मसे संगीत रोक देना तो अपने धर्मसे इनकार करना है।

लेकिन इस प्रश्नका दूसरा पहल भी है। हमेशा बाजा बजाना और नमाजके वक्त मस्जिदके पाससे गुजरते हए भी बाजा बजाते जाना क्या कोई धार्मिक आवश्यकता है? क्या रामनामकी रट लगाना भी ऐसी ही आवश्यक वस्तु है? इस आक्षेपका क्या जवाब है कि आजकल ज्यादातर मुसलमानोंको चिढ़ाने के लिए ही जुलूस निकालनेका रिवाज हो गया है, नमाजके वक्तपर ही आरती की जाती है और रामनामकी धुन लगाई जाती है, और वह भी इसलिए नहीं कि वह कोई धार्मिक आवश्यकता है, बल्कि इसलिए कि लड़ने का अवसर प्राप्त हो? यदि यह सच है, तो इससे तो हिन्दुओंके उद्देश्यको हानि पहुँचेगी। धार्मिक उत्साह न होनेके कारण अदालतका हुक्म, फौजी कार्रवाई, इंटोंकी वर्षा उस धार्मिक प्रदर्शनको जरामें ही समाप्त कर देगी।

इसलिए पहले यह तय कर लेना चाहिए कि उसकी धार्मिक आवश्यकता है या नहीं। जहाँतक हो उत्तेजनाका हरेक काम बचाया जाना चाहिए। आपसमें समझौता करने के लिए भरसक दिली कोशिश की जानी चाहिए। और जहाँ समझौता होना सम्भव नहीं है वहाँ विपक्षियोंकी भावनाओंको ध्यानमें रखते हुए, हमें अदालतकी मदद के बिना एक ऐसी न्यूनतम हद बाँध लेनी चाहिए कि उससे फिर हम किसी प्रकारसे भी पीछे न हटें। अदालतकी निषेधाज्ञा होनेपर भी हमें उस हदपर कायम रहनेके लिए लड़ना चाहिए। कोई मुझपर यह दोष कदापि न लगावे कि मैं कमजोर बननेकी सलाह देता हूँ, या कमजोरीको प्रोत्साहन दे रहा हूँ या किसीसे अपना सिद्धान्त छोड़ देनेके लिए कहता हूँ। लेकिन मैंने यह अवश्य कहा है, और आज भी कहता हूँ कि हरएक छोटी-मोटी बातको सिद्धान्तका रूप देकर उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२–१०–१९२५