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बिहार के अनुभव—३

लिए जरा-सी भी शान्ति पाना असम्भव हो गया। स्वयंसेवक गण ऐसी भारी भीड़को मेरे पास आनेसे और मुझे छूने से रोकने में असमर्थ थे। सच बात तो यह थी कि पहले यहाँ कुछ अधिक कार्य हुआ ही न था। स्वयंसेवकोंके लिए भी वह काम बिलकुल ही नया था। बेचारोंने भरसक कोशिश की। उसमें दोष किसीका भी न था। उनके लिए तो यह नई बात और नया अनुभव था। और लोग तो मेरे नजदीक आकर मुझे छूनेके इस मौकेको, जिसे वे अपूर्व मानते थे, छोड़ना नहीं चाहते थे। यह प्रेमयुक्त वहम है, लेकिन मुझे यह बहुत ही तकलीफ देता है। मैंने उनसे खादी, चरखा, शराबखोरी, जुआ इत्यादिके सम्बन्धमें बहुत कुछ बातें कहीं। लेकिन मुझे लगता है कि शायद उसमें से वे कुछ भी न समझ सके होंगे। ईश्वरकी लीला विचित्र है। हजारों लोग उस व्यक्तिके प्रति या उस चीजके प्रति अपने आप खिंचे चले जाते है जिसका कि उन्हें नाममात्र ज्ञान है। में नहीं जानता कि मेरे-जैसे एक अजनबीको देखकर उन्हें कुछ लाभ हुआ होगा या नहीं। मैं यह भी नहीं जानता कि मैंने फारबिसगंज जानेमें अपने समयका सदुपयोग किया था या दुरुपयोग। यदि हम ईश्वर और मनुष्योंकी सेवाके लिए ही सब कुछ करते हों और जिसे हम बुरा समझते हैं उसे न करते हों, तो फिर शायद समस्त कार्योंके परिणामोंको न जान सकनेकी हमारी विवशता ही अच्छी है।

उपसंहार

फारबिसगंजसे हम लोग विशनपुरकी ओर गये। विशनपुर पूर्णियासे २५ मील दूर है, और चूंकि पक्का रास्ता नहीं है, मोटरमें बैठकर जानेसे जरा तकलीफ होती है। इस गाँवमें एक बड़ी सभा हुई।[१] और इस छोटेसे गाँवमें, जो रेलवे लाइनसे दर है, सार्वजनिक कामों में लोगोंका ऐसा उत्साह देखकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। लोगोंने स्मारकके लिए अच्छा चन्दा दिया। इस सभाकी सबसे नई बात तो यह थी कि सभाके लिए एक स्थायी मंच तैयार किया गया था। वह करीब १५ फीट ऊँचा था और ईंटोंका पक्का बना हुआ था। इसके नीचेके हिस्सेमें खादी-भण्डार रखा गया है। इसके निर्माण में उपयोगिताके साथ सुन्दरताका मिश्रण किया गया है। इस गाँवमें एक सुनिर्मित पुस्तकालय और वाचनालय भवनका उद्घाटन करके मुझे सबसे अधिक खुशी हुई। पुस्तकालयके चारों ओर खुला हुआ विशाल बाड़ा है और उसमें संगमरमरकी बेंचें पड़ी रहती हैं। यह पुस्तकालय चौधरी लालचन्दकी स्वर्गवासी पत्नीको स्मृतिमें बनाया गया है। विशनपुर-जैसी जगहमें ऐसा स्मारक खोलनेका विचार किया गया, इसीसे यह प्रमाणित होता है कि वहाँ लोगोंको सही ढंगको राजनैतिक शिक्षा अच्छी तरह मिली है। विशनपुरसे हम लोग पूर्णिया लौट आये। यह इस जिलेका सदर मुकाम है और यहीं एक तरहसे सामान्य समारोहोंके साथ बिहारकी यात्रा समाप्त हई। यों इस यात्राकी समाप्ति तो असलमें हाजीपुरमें हुई थी। वहाँके कुछ युवक कार्यकर्त्ताओंके उत्साहके कारण वहाँ एक राष्ट्रीय पाठशाला स्थापित की गई थी, जिसकी

 
  1. देखिए "भाषण : विशनपुरमें", ११–१०–१९२५।