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दुविधा

कुर्बानी करनी पड़े। यदि सब लोगोंको मजबूर होकर खद्दर पहनना देना पड़े तो सूत कातने का कोई महत्त्व नहीं रहेगा। सूत कातनेका महत्त्व निरपेक्ष नहीं, बल्कि सापेक्ष है। यदि सूत कातनेसे बनी चीज बाजारमें न बिके तो लाखों-करोड़ों अधभूखे स्त्री-पुरुषोंको सूत कातने के लिए कहना उनके साथ क्रूर मजाक जैसा होगा। इसलिए इस समय जरूरत इस बातकी है कि खद्दरको लोकप्रिय बनाया जाये। सूत कातना निस्सन्देह आवश्यक है, किन्तु जब सूत कातने और खादी पहननेके बीच एक चीज चुननी पड़े तो स्वभावतः खादी पहननेको निर्विवाद रूपसे तरजीह देनी होगी। सूत कातनेकी जरूरत उन लोगोंको है, जिनकी आमदनी बहुत कम है और जो उसे कुछ बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे लोगोंको भी फुर्सतके वक्तमें ही सूत कातना है। उन लोगोंको भी सूत कातनेकी जरूरत है जो राष्ट्रको बिना पारिश्रमिक लिए कताईके रूपमें अपने फुर्सतके थोड़ेसे क्षण देना चाहते हैं। इस मामले में यदि मनमें सूत कातनेका संकल्प हो तो कुछ समयमें उसके लिए अवकाश भी निश्चय ही मिल जायेगा। सम्भवतः इन पत्र-लेखकको ट्रामसे या रेलगाड़ीसे दफ्तर जाना होता है। वह अपने साथ तकली रखे और जब-जब उन्हें कुछ समय मिले उसका उपयोग वह सूत कातनेमें करें। मैं ऐसे कई लोगोंको जानता हूँ जो बीच-बीच में मिलनेवाले अपने फुर्सतके समयका उपयोग इस तरह करते है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि चाहे कितने ही प्रलोभन क्यों न दिये जायें, किन्तु पत्र-लेखक महोदय खद्दर पहनना कभी नहीं छोड़ेंगे। मैं सोचता था कि विदेशी व्यापारिक पेढ़ियोंसे खद्दरके प्रति विद्वेष चला गया है। मैंने कलकत्ताके जिन यूरोपीय व्यापारियोंसे बातें की है उन्होंने खद्दरके कपड़ोंके विरुद्ध कोई द्वेषभाव नहीं दिखाया। मैं चाहता हूँ कि जो प्रभावशाली यूरोपीय व्यापारी इस अनुच्छेदको पढ़ें, वे अपने प्रभावको काममें लाकर पत्र-लेखक द्वारा बताये गये द्वेषभावको दूर करेंगे। अब समय आ गया है जबकि भारतीय पेढ़ियों को भी अपने व्यापारको इस प्रकार पुनर्गठित करना होगा जिससे अपने कर्मचारियोंके कामके घंटोंमें कमी हो। सारे संसारका अनुभव यही बताता है कि बहुत देरतक काम करनेसे काम अधिक नहीं होता, बल्कि वास्तवमें उस तरह काम कम ही होता है। इसके लिए केवल थोड़ासा साहस और थोड़ी पहल करनेकी जरूरत है जिससे कि यह आवश्यक सुधार स्वेच्छा और उदारतासे किया जा सके। अन्यथा यह सुधार तो हर हालतमें होकर रहेगा; किन्तु जब वह दबावसे होगा तब उसकी सारी शोभा जाती रहेगी। कर्मचारियोंके लिए कामके घंटे घटानेका आन्दोलन संसार-भरमें हो रहा है और उसे कोई रोक नहीं सकता। क्या भारतीय वाणिज्य परिषद् अथवा ऐसी ही अन्य कोई व्यापारिक संस्था इस दिशामें मार्गदर्शन करेगी? [अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २२–१०–१९२५