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२०८. भाषण : भुजकी सार्वजनिक सभामें[१]

२२ अक्तूबर, १९२५

आपके मानपत्रसे तो मैंने यह सोचा था कि आप अपनी सभामें अपने और अन्त्यजोंके बीच कोई हद नहीं बाँधेंगे, लेकिन मैंने देखा कि आपने विभाजन किया है। तब मुझे लगा कि अब मेरा स्थान अन्त्यज भाइयोंमें ही हो सकता है, क्योंकि मैंने स्थान-स्थानपर अपने आपको भंगी ही कहा है। यह दावा श मिथ्याभिमानपूर्ण नहीं है; यह मेरे अज्ञानका स्वरूप भी नहीं है और न इसमें पश्चिमके प्रभावकी ही कोई बात है। यह दावा मैंने सर्वथा सेवाभावसे किया है और सो भी जन्मसे हिन्दू-धर्मका अध्ययन करके और अपने धर्मनिष्ठ माता-पिताका सावधानीसे अनुकरण करने के पश्चात् किया है, न कि पश्चिमकी हवासे प्रभावित होकर, शरीर और शरीरीको पहचानन का मैने अभ्यास किया है; एक प्राकृत मनुष्य शास्त्रका जितना अध्ययन कर सकता है, उतना मैंने किया है और उस अध्ययनको अनुभवमें भी उतारा है। इस अध्ययन और अनुभवके अन्तमें मैं इस दृढ़ निश्चयपर आया हूँ कि हिन्दूधर्म यदि अस्पृश्यताको बनाये रखेगा तो इससे उसका—हिन्दुओंका और हिन्दुस्तानका—नाश ही होगा। भारतमें भटकते हुए अनेक शास्त्रियों और पण्डितोंसे मिलकर तथा इसपर चर्चा करनेके बाद मैं अपने निश्चयमें और भी दृढ़ होता चला जा रहा हूँ। इसलिए आपसे स्पष्ट कहे देता हूँ कि ऐसे विचार रखनेवाला मैं यदि आपके लिए अस्पश्य होऊँ, त्याज्य होऊँ तो आप आग्रह पूर्वक मेरा त्याग करें और कहें कि तुम अपनी यात्रा एक दिनमें ही पूरी करके यहाँसे चले जाओ। इससे मुझे दुःख नहीं होगा, सुख मिलेगा। मैं यह समझूगा कि कच्छके लोगोंमें आत्मसम्मान है, साहस है; बड़े कहे जानेवाले व्यक्तिके सम्मुख भी मतभेद प्रकट करते हुए कच्छी पीछे नहीं हटते। इसलिए यदि आप मुझे निकालेंगे तो यह अकेले आपके लिए ही नहीं बल्कि मेरे और अन्त्यजोंके लिए भी श्रेयस्कर बात होगी। विश्वास रखें कि आपके द्वारा मेरा त्याग किये जानेसे आपके और मेरे सम्बन्धमें कोई अन्तर नहीं आयेगा। आप मेरा त्याग करें तो इसमें मेरा अनादर नहीं है। लेकिन मुझे बुलाकर अन्त्यजोंका अनादर करना तो मेरा भारी अनादर है। मैं हिन्दू-धर्मसे ओत-प्रोत हूँ। हिन्दु धर्मके लिए जीता हूँ और हिन्द-धर्मके लिए ही मरना चाहता हूँ। यदि मुझे आज लगे कि मेरे मरनेसे हिन्दू-धर्मका लाभ है तो जितने प्रेम और उत्साहसे में आज आपका आलिंगन करता हूँ, उतने ही प्रेम व उत्साहसे मृत्युका भी करूँगा। इस हिन्दू-धर्मकी सेवा करते हुए मैं अस्पृश्यताको बहुत बड़ा कलंक मानता हूँ। अन्त्यजोंको मैं अपने प्राणके समान मानता हूँ। अतएव जिस तरह 'रामायण' का अनुरागी, जहाँ रामनामका अपमान होता है वहाँसे दूर भागता है उसी तरह जहाँ

 
  1. भुज तत्कालीन कच्छ राज्यकी राजधानी था। मानपत्र नागलवाड़ीमें हुई एक सार्वजनिक सभामें भेंट किया गया था। यह भाषण महादेव देसाईके कच्छ यात्रा-विवरणसे उद्धृत किया गया है।