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भाषण : भुजकी सार्वजनिक सभामें

अन्त्यजोंका अनादर हो वहाँ मैं भी खड़ा नहीं रहूँगा; वहाँसे भाग जाऊँगा; क्योंकि वहाँ मेरी आत्माको क्लेश होता है। आपने मेरे सत्याग्रहकी प्रशंसा की है तो फिर आज मैं उसका पदार्थ-पाठ पढ़ानेका बीड़ा उठाता हैं। इसलिए आप कातें और अन्त्यजोंको अपने बीच आने दें अथवा मुझे उनके मध्य जाकर बैठने दें। लेकिन याद रखें, मेरे प्रति झूठमूठका सम्मान दिखाते हुए घर जाकर नहा लेनेकी वृत्तिसे यदि आप कुछ करेंगे तो वह उचित नहीं है। मैंने तो आपको कच्छ आनेसे पहले पत्र द्वारा प्रार्थना करते हुए सावधान कर दिया था। परिणामतः यदि आप अन्त्यजोंको अपने मध्य आने दें तो इसी निश्चयसे कि ऐसा करके आप पुण्य करते हैं, पाप नहीं; हिन्दूधर्मको स्वच्छ करते है, भ्रष्ट नहीं। यदि आप मानते हों कि ऐसा करना पाप है तो आप निःसन्देह मुझे उनके बीच बैठने दें। दोमें से चाहे जो करें, पर करें निश्चयपूर्वक। किसीके डर अथवा शर्मके बिना यदि आप ऐसा करेंगे तो मैं समझूँगा कि आपने मल्यवान चाँदीके इस चरखे और चाँदीकी इस मंजुषाकी अपेक्षा कहीं अधिक मल्यवान मानपत्र मुझे दिया है। लेकिन ध्यान रहे, आज अन्त्यजोंको आने देकर मंगरोलकी[१] भांति बादमें उनका तिरस्कार करेंगे तो आप उनकी सेवा नहीं बल्कि असेवा ही करेंगे। और यह भी कह दूँ कि आज जो सुधार आप करें सो विचारपूर्वक अपनी शक्तिका माप लेकर, स्थायी सुधारके रूपमें करें।

अब हमें दूसरा कदम उठाना है। सेनाके भीतर जिस तरह चुपचाप आन्दोलन करना पड़ता है वैसा ही हमें करना पड़ेगा। सभामें उपस्थित अधिकांश लोग चाहते है कि अन्त्यजोंको अपने सामने लगाई गई बाड़को नहीं लाँधना चाहिए; तो आप स्वयंसेवकोंके सामने की मेजको उठाकर अन्त्यजोंवाले भागमें रखनेकी अनुमति दें ताकि मैं अपने भाषणके दूसरे अंश वहाँसे सुना सकूँ। आपके प्रेम अथवा आग्रहके अधीन होकर मैं यहाँ बैठा-बैठा व्याख्यान देता रहूँ यह बात मेरे लिए दुखदायी है और यदि आप मुझे उनके बीच बैठने दें तो वह मेरे लिये सुखदायी है। अस्पृश्यताका नाश जबर्दस्ती नहीं होगा; सत्याग्रहसे होगा; प्रेमके आग्रहसे होगा। संकट सहकर और तपश्चर्यासे धर्ममें सूवार हो सकता है, दूसरे तरीकेसे नहीं। रोषसे अथवा दुखसे अथवा घृणासे नहीं होता सत्यका विरोध करनेवाले व्यक्तिका मनसे भी बुरा न चाहे, यह सत्याग्रहीका धर्म है। आपके इस बहुमतसे मुझे दुःख नहीं होता, और उससे क्रोध तो होता ही नहीं। अब अन्य लोग जहाँ बैठे हैं वे वहीं बैठे रहें- केवल मैं ही वहाँ चला जाऊँगा; क्योंकि इस प्रसंगमें वहाँ जाना मेरा विशेष धर्म है, जैसे आश्रममें एक बालाको[२] अपने पास रखकर उसका लालन-पालन करना मेरा विशेष धर्म हो गया है, उसी तरह आज अन्त्यजोंके बीच जाकर बोलना मेरा विशेष धर्म है—आप तो जैसे बैठें है वैसे ही बैठें रहें, तब आप शान्तिसे सुन सकेंगे।

यदि शास्त्र और इतिहासमें यह बताया गया होता कि शासनकी बागडोर केवल रामके हाथमें ही हो सकती है तो मैं राजतन्त्रका कट्टर दुश्मन होता। लेकिन

 
  1. सौराष्ट्रमें ७ अप्रैल, १९२५ को मंगरोलमें गांधीजीने अन्त्यजोंसे भेंट की थी।
  2. लक्ष्मी, दूदाभाईकी पुत्री।