पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/४३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४००
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भंग भी कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर तो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है और इसलिए वह अपने कानूनको कभी भंग नहीं करता। उसके कानूनमें न कोई संशोधन होता है, न कोई परिवर्तन। उसके नियम-कानून अटल है। उसने हमें अनेक विचार करनेकी और उसमें से कुछ पसन्द करनेकी, अच्छा-बुरा समझनेकी शक्ति दी है। हमारी स्वतन्त्रता इसी बातमें है। यह स्वतन्त्रता बहुत ही कम है। इतनी कम कि एक ज्ञानीको यह कहना पड़ा कि यह स्वतन्त्रता जहाजके तख्तेपर घूमने फिरने जितनी स्वतन्त्रतासे भी कम है। वह चाहे जितनी कम क्यों न हो, है तो आखिर स्वतन्त्रता ही। कम होनेपर भी वह इतनी अवश्य है कि मनुष्य इसके द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। देव और पुरुषार्थका युग्म कभी एक दूसरेका साथ नहीं छोड़ता। लेकिन दैव मुक्तिके पथपर चलनेवालोंके कभी आड़े नहीं आता है।

इसलिए हमें अब इसी बातका विचार करना चाहिए कि ईश्वरकी सेवा किस प्रकार की जाये, उसका भजन कैसे किया जाये। ईश्वरकी सेवा एक ही प्रकारसे हो सकती है। गरीबोंकी सेवा ही ईश्वरकी सेवा है। एक चींटीकी भी सेवा करें तो वह ईश्वरकी सेवा होगी। लेकिन चींटियोंके घरोंके पास आटा डालनेसे उनकी सेवा न होगी ईश्वर चींटीको कन और हाथीको मन देता है। चींटीको भी जो जानबूझ कर नहीं कुचलता है, वह उसकी सेवा करता है। इस तरह जो ज्ञानपूर्वक चींटीको भी दुःख नहीं पहुँचाता वह अन्य प्राणियोंको और अपनी ही जातिके प्राणी मनुष्यको कभी दुःख नहीं पहुँचायेगा। हर जगह और हर समय सेवाका प्रकार बदलता रहता है। यद्यपि सेवावृत्ति एक ही बनी रहती है। दुःखी मनुष्यकी सेवा करने में ईश्वर ही की सेवा होती है। लेकिन उसमें विवेक होना चाहिए। भूखे मनुष्यको भोजन देनेसे सेवा ही होगी, यह मान बैठनेका कोई कारण नहीं है। जो मनुष्य आलसी है, और दूसरेके भरोसे बैठा रहकर भोजनकी आशा रखता है, उसे भोजन देना पाप है। उसे काम देना पुण्यका काम है और यदि वह काम करनेके लिए तैयार नहीं है तो उसे भखा ही रहने देने में उसकी सेवा होगी। ईश्वरका नाम जपना, पूजा-पाठ करना आवश्यक है; क्योंकि उससे आत्माकी शुद्धि होती है और जिस मनुष्यकी आत्मा शुद्ध है वह अपना मार्ग स्पष्ट रूपसे देख सकता है। लेकिन केवल पूजा-पाठ ही ईश्वरकी सेवा नहीं है। यह सेवाका साधन है, इसीलिए गुजराती कवि नरसिंहने गाया है :

"शुं थयुं स्नान पूजाने सेवा थकी
शुं थयुं माल ग्रही नाम लीधे[१]"

इस उत्तरमें से तीसरे प्रश्नका भी उत्तर मिल जाता है। तीसरा प्रश्न है जीवनका हेतु? अपनेको पहचानना है। नरसिंहकी भाषामें कहें तो :

"ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहि
त्यां लगी साधना सर्व जूठी"

और आत्मतत्त्व-आत्मज्ञान, जीव-मात्रके साथ अर्थात् ईश्वरके साथ ऐक्य, तन्मयता सिद्ध

 
  1. स्नान और पूजा-अर्चना और माला लेकर नाम जपनेसे क्या होता है।