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प्रश्नोत्तर


३. एक साल पहले आपके बारेमें यह कहा गया था कि आप सविनय अवज्ञा आरम्भ करना चाहते हैं और एक बार यदि आपने उसका आरम्भ कर दिया, फिर छुटपुट हिंसापूर्ण दंगे हो जानेपर भी आप उसको जारी रखेंगे। जनताके लिए सम्पूर्ण अहिंसाका पालन करना असम्भव होने के कारण क्या अब आप कुछ अंशोंमें (आपकी अपनी शक्तिभर कमसे-कम) हिंसा की भी जोखिम उठाकर सविनय अवज्ञा आरम्भ करेंगे?

एक साल पहले मैंने जो-कुछ कहा था और आज भी जिसे मैं दुबारा कहना चाहता हूँ वह यह है कि अब में जो भी कदम उठाऊँगा, मुझे आशा है कि अब उसमें अगर-मगरकी कोई बात नहीं होगी, वह बिलकुल पक्का और अडिग होगा। जब कभी मैंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन रोका है, वह हिंसात्मक उपद्रवोंके आरम्भ हो जाने के कारण नहीं, बल्कि यह पता चलनेपर कि ये हिंसात्मक उपद्रव उन कांग्रेसियों द्वारा, जिन्हें इस सम्बन्धमें अपने कर्त्तव्यका ज्यादा ज्ञान होना चाहिये था, शुरू किये गये थे या उन्हीं कांग्रेसियोंने और लोगोंको इन उपद्रवोंके लिए प्रोत्साहित किया था। किसी हिसाके विस्फोटके कारण, जैसे कि मोपला काण्डके कारण, सविनय अवज्ञा रोकी नहीं जा सकती थी। लेकिन चौरी-चौरा काण्डके कारण उसे रोकना जरूरी हो गया, क्योंकि उसमें कांग्रेसियोंका हाथ था।

४. कलकत्तेके दंगमें आपने सारा ही दोष हिन्दुओंके मत्थे मढ़ा था। मारवाड़ी-संघ या किसी अन्य हिन्दू संगठनने आपको रायको गलत बताया था और यह साबित करने के लिए प्रमाण भी पेश किये थे कि हिन्दुओं को भड़काने की काफी जिम्मेदारी मसलमानोंको थी। आपने यह वचन दिया था कि यदि आपको अपनी पहली राय गलत मालूम होगी तो आप उसे जाहिरा तौरपर स्वीकार कर लेंगे। तो क्या अब आप अपने पहलेकी राय जाहिर तौरपर बदलेंगे।

मुझे अपनी पहले राय बदलनेका अबतक कोई कारण नहीं मिला है।

५. आप नगरपालिका (जो आजकल स्वराज्यवादी दलके हाथोंमें है) का अभिनन्दन-पत्र तो स्वीकार करने के लिए राजी हो गये, लेकिन आपने हिन्दू-सभाके अभिनन्दन-पत्रको टाल दिया। आप हिन्दू होकर भी हिन्दू जनताको प्रतिनिधि संस्थाके प्रति ऐसा अनुचित भेद-भाव क्यों रखते हैं?

मैने लखनऊ हिन्दू-सभाके अभिनन्दन-पत्रको कभी नहीं टाला था, बल्कि मैंने तो उनसे यह कहा था कि जब मैं लखनऊ आऊँगा, उनका अभिनन्दन-पत्र खशीसे स्वीकार करूँगा। नगरपालिकाके स्वराज्यवादी सदस्य इसके बाद मुझसे मिले और जब में लखनऊ होकर गुजर रहा था, उसी बीच उनका अभिनन्दन-पत्र स्वीकार करनेके लिए मुझे आग्रह करने लगें। हिन्दू-सभा भी ऐसा ही कर सकती थी। उसे टाल देनेकी तो कोई बात थी ही नहीं। मैंने तो यही सोचा था कि जब मैं लखनऊ होकर सिर्फ गुजर ही रहा था, उस समय शायद सभा मुझे अभिनन्दन-पत्र देना न चाहे, खास करके जब वह लखनऊमें हिन्दू-मुसलमानोंके बीच तनावके बारेमें