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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है कि कमेटी ऐसा परिवर्तन तभी कर सकती है जब इस बातमें कमेटीकी पूरी नहीं तो लगभग पूरी सहमति हो।

ऐसे परिवर्तनकी आवश्यकता ही सविनय अवज्ञा करनेका पर्याप्त कारण नहीं हो सकती। जिसके खिलाफ सविनय अवज्ञा करनी हो, उसे भी इससे लाभ पहुँचना चाहिए। यहाँ तो, इस शर्तका पूरा-पूरा पालन होता है; क्योंकि इन परिवर्तनोंकी आवश्यकता कांग्रेसके लाभके लिए है। दूसरी शर्त यह है कि अवज्ञा करनेवालेके मनमें द्वेषभाव न होना चाहिए। यह शर्त तो इसके नाममें ही आ जाती है, क्योंकि विनय द्वेषका विरोधी है और जहाँ कांग्रेसकी भलाईकी कामना की गई है वहाँ द्वेष कहाँसे हो सकता है? यह लेख में इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि मैं किसीसे उसकी इच्छाके खिलाफ ऐसा कहलाना चाहता हूँ कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीको संविधानमें परिवर्तन करना ही चाहिए। इसमें भी सब स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी-अपनी विचार-बुद्धिका प्रयोग करें। जिन्हें ऐसा लगे कि विधानमें इस तरह परिवर्तन करनेसे लाभके बजाय हानि ही अधिक होगी तो परिवर्तनकी आवश्यकता स्वीकार करते हुए भी उनका फर्ज है कि कमेटीकी मार्फत परिवर्तन करनेका विरोध करें। सविनय अवज्ञा किसीके कहनेसे नहीं होती, न होनी चाहिए। सविनय अवज्ञा तो तभी होनी चाहिए जब वह खुद ही किसीको अनुकूल मालूम हो; तभी वह शोभा भी दे सकती है, तभी वह सम्भव भी है। कारण, जो बात हमें पटती नहीं उसे करनेकी शक्ति भी हमारे अन्दर नहीं होती और सविनय अवज्ञाकी सफलताका आधार तो केवल स्वशक्तिपर ही है।

इस लेखका मुख्य हेतु यह दिखाना है कि सविनय अवज्ञा किन परिस्थितियोंमें हो सकती है। मैं अपनेको सविनय अवज्ञाका शास्त्री मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि उसकी खोज भी मैंने स्वतन्त्र रूपसे की है और मैं अपना यह धर्म मानता हूँ कि उसकी प्रासंगिकता, उसकी मर्यादा आदि समय-समयपर बताता रहूँ। परिवर्तन हो या न हो, इसके विषयमें मैं तटस्थ हूँ। इतना ही नहीं, मैं मानता हूँ कि यदि सब लोग अपनीअपनी स्वतन्त्र निर्णय-बुद्धिका उपयोग न करेंगे तो हमें इस परिवर्तनसे हानि ही होगी। जो अपनेको मेरा अनुयायी मानते हैं, उनपर ये विचार विशेष रूपसे घटते हैं। मुझे अन्धभक्ति पसन्द नहीं है। उससे मुझे तीव्र अरुचि है। अन्ध-भक्तिसे स्वराज्य नहीं मिल सकता, और मिले भी तो वह टिका नहीं रह सकता। इसलिए मैं अपने अनुयायियोंकी भी बुद्धिको अपनी बात जँचाकर और इस तरह उन्हें अपने पक्षमें लेकर ही उनसे काम लेना चाहता हूँ। यदि हम उपर्युक्त परिवर्तन सोच-समझकर करेंगे और उनपर ईमानदारीके साथ अमल करेंगे तो मैं उससे बहुत अच्छे परिणाम उत्पन्न होनेकी आशा रखता हूँ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २–८–१९२५