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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं उस समय नहीं जा सका था। लोगोंको विश्वास नहीं रह गया था कि मैं वहाँ पहुँचूंगा। लेकिन जब मैं सचमुच वहाँ जा पहुँचा, तो वे खुशीसे पागल हो उठें। स्वयंसेवक उनपर कतई काबू नहीं रख पाये। लेकिन ज्यों ही मैंने उन्हें अपनी बात सुनाई और देशबन्धु स्मारक कोषके लिए दान देने की बात कही त्यों ही उन्होंने उदारतासे रुपये देने शुरू कर दिये। खास बलिया स्टेशनपर जो भीड़ थी, वह तो बहुत ही बेकाबू थी। अमेरिकन मिशनके पादरी पेरिल साहबने मेरे लिए अपनी मोटर स्टेशनपर लानेकी कृपा की थी। मैं बड़ी मुश्किलसे उस मोटरतक जा सका और उस मोटरके कारण ही उस जबर्दस्त भीड़में से सहीसलामत बाहर निकल सका। स्टेशनसे हम लोग सीधे वहाँकी सार्वजनिक सभामें गये। वहाँ एक बड़ा भारी और ऊँचा मंच किया गया था। उसे एक नजर देखते ही मैं यह समझ गया कि किसी अनाड़ीने उसकी रचनाकी है और उसपर जितने आदमियोंके बैठने की जगह रखी गई है उतने आदमियोंका वहाँ बैठना खतरेसे खाली नहीं था। वहाँ सब मिलाकर सात अभिनन्दन-पत्र दिये जाने थे। जिन-जिन लोगोंका इनके साथ सम्बन्ध था, उन सबका वहाँ मंचपर होना स्वाभाविक था। उस मंचपर जाने के लिए जो सीढ़ियाँ बनाई गई थीं वे भी हिलती थीं, उनपर पैर फिसलता था और उनसे चढ़ना-उतरना खतरनाक था। जब कोई मंचपर थोड़ा भी चलता-फिरता तो सारा मंच हिलने लगता था। १० आदमियोंका वजन भी वह नहीं सँभाल सकता था और उसके कुछ भागोंपर तो एक आदमीका भी चलना जोखिमका काम था। अध्यक्षने फौरन ही यह समझ लिया कि यदि किसी भी प्रकारकी दुर्घटनासे बचना है, तो यह आवश्यक है कि मेरे अलावा और सबको वहाँसे हट जाना चाहिए। इसलिए वे सब मुझे राजेन्द्रबाबूके हाथोंमें सौंपकर धीरे-धीरे नीचे उतर गये। जिन्हें अभिनन्दन-पत्र पढ़ने थे वे एक-एक करके आते थे। इतना खयाल रखनेपर भी यह अन्देशा बना रहता था कि किसी भी समय वह मंच कहीं भरभराकर गिर न पड़े। इतने खतरनाक रूपसे कमजोर मंच देखनेका मेरा यह पहला अनुभव था। मुझे कमसे-कम दो अवसर और याद है। लेकिन वह मंच तो उनसे भी कमजोर था। बारीक दृष्टिवाले लोग तो देखते ही उसकी कमजोरी ताड़ सकते थे। लेकिन आयोजकोंको मंच-निर्माणका कोई अनुभव नहीं था और जिसने मंच बनाया उसे तो कतई नहीं था। कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओंको बलियाके इस उदाहरणसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए और उन्हें बड़े मंच बनानेका प्रयत्न नहीं करना चाहिए। यदि वे ऐसा मंच बनाना ही चाहें, तो यह काम उन्हें ऐसे कुशल व्यक्तियोंको सौंपना चाहिए जो अपना काम ठीकसे जानते हों। स्वयंसेवक सभाकी भी ठीक-ठीक व्यवस्था नहीं रख सके। अभिनन्दन-पत्र पढ़ते वक्त भी शोर होता रहता था। लेकिन जब मैंने लोगोंसे अपनी बातें सुन लेनेकी विनती की तो वे सबके-सब बिलकुल शान्त हो गये। इससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि बिहारकी तरह यदि यहाँपर भी कुछ पहले से तैयारी की गई होती तो उसका परिणाम भी बिहारके जैसा होता और बलियामें जो-कुछ भी कार्य में कर सका उससे कहीं ज्यादा और ठोस कार्य कर सकता। शान्त रहकर लगातार काम करनेकी ही