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संयुक्त प्रान्तके अनुभव

आवश्यकता है। बलियामें कुछ बड़े अच्छे कार्यकर्त्ता भी है और इसलिए उसे आजके बनिस्बत अधिक अच्छे कार्यका केन्द्र भी बनाया जा सकता है। मैं जानता हूँ कि बलियाके लोग बड़े धैर्यवान और कष्टसहिष्ण हैं। उन्होंने १९२०-२१ में बड़ा त्याग किया था।

काशी विद्यापीठ

बलियासे हम लोग बनारस गये। वहाँसे सीतापुर जाने के लिए हमें लखनऊवाली गाड़ी बदलनी थी। बनारसमें पांच घंटे का मुकाम रहा। बाबू भगवानदासने इस बीच काशी विद्यापीठके विद्यार्थियों की एक सभाका प्रबन्ध कर लिया।[१] नगरपालिकाके अधीन चलनेवाले मिडिल स्कूलोंमें कताई और बुनाईके सम्बन्धमें जो अच्छा कार्य किया गया है, उसे देखने के लिए भी वे मुझे ले गये। पाठकोंको शायद याद होगा कि इस कार्यका आरम्भ श्री रामदास गौड़ने किया था और तबसे वह बराबर होता चला आ रहा है। इन पाठशालाओंमें चरखे और तकली दोनोंका उपयोग होता है। यह प्रयोग काफी हदतक सफल कहा जा सकता है। विद्यापीठ में मुझे उसका कारखाना दिखाया गया। वहाँ बढ़ईगिरी में बड़ी अच्छी तरक्की हो रही है। विद्यापीठमें चरखेकी उन्नति अच्छी हुई नहीं कहीं जा सकती हैं। मैंने अपने व्याख्यानमें विद्याथियोंसे और अध्यापकोंसे कहा कि यदि उन्हें चरखेमें श्रद्धा नहीं है, तो वे उसे विद्यापीठके पाठ्यक्रमसे बिलकुल ही निकाल दें। महज इसलिए कि चरखेको राष्ट्रीय आन्दोलनका एक अंग माननेका रिवाज पड़ गया है, उसे इस प्रकार स्थान देने से कोई लाभ न होगा। अब समय आ गया है कि प्रत्येक राष्ट्रीय पाठशाला अपनी शिक्षा सम्बन्धी नीतिका स्वयं विकास करे और दूसरों के द्वारा उसका विरोध किये जानेपर भी वह उसे सफल बनानेका प्रयत्न करे।

लखनऊमें

बनारससे हम लोग लखनऊ गये। वहाँ कोई तीन घंटेसे ज्यादा ठहरे। वहाँ मुझे लखनऊ नगरपालिकाने अपनी तरफसे एक अभिनन्दन-पत्र देकर सम्मानित किया। वह अभिनन्दन-पत्र बड़े ऊँचे दर्जेकी उर्दू में लिखा हुआ था। जो संयुक्त प्रान्तका निवासी नहीं है उस मेरे जैसे एक सादे मनुष्यको समझने की दृष्टिसे, भाषा जितनी मुश्किल बनाई जा सकती है, उसे उतना मुश्किल बनानेकी मानो खास कोशिश की गई थी। उसमें अरबी और फारसीके बड़े-बड़े कठिन शब्दोंका प्रयोग किया गया था और ऐसा मालूम होता था कि मानो मामूली बोल-चालके शब्द और जिनका मूल संस्कृतसे हो ऐसा एक भी शब्द उसमें न आने देनेकी खास कोशिश की गई थी। इसलिए मुझे उसका जो अंग्रेजी अनुवाद दिया गया सो ठीक ही था। मैंने नगरपालिकासे कहा[२] कि मैं उन्हें उनकी बड़े ऊँचे दर्जेंको उस उर्दू के लिए मुबारकबाद नहीं दे सकता। मैं अन्तर्प्रान्तीय व्यवहार के लिए एक राष्ट्रीय भाषाको आवश्यकताको स्वीकार करता

 
  1. देखिए भाषण "काशी विद्यापीठमें", १७–१०–१९२५।
  2. देखिए भाषण "लखनऊ नगरपालिकाकी संभालें", १७–१०–१९२५।