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९. एच॰ डब्ल्यू॰ बी॰ मोरेनोसे बातचीत

कलकत्ता
४ अगस्त, १९२५

श्री गांधीने हाल ही में आंग्ल-भारतीयोंकी एक सार्वजनिक सभामें कहा था[१] कि आंग्ल-भारतीयोंको यूरोपीयोंकी नकल नहीं करनी चाहिए। इसके विपरीत उन्हें तो वेशभूषा भी भारतीय ढंगको अपनानी चाहिए और सभी राजनीतिक बातोंपर भारतीय दृष्टिकोणसे गौर करना चाहिए। डा॰ मोरेनोने इस प्रकारके कथनके औचित्यपर आपत्ति की और कहा कि आंग्ल-भारतीय बिलकुल शैशव-कालसे ही अंग्रेजी वेशभूषा पहनते हैं और अंग्रेजी भाषा बोलते हैं। यही उनकी परम्परा है और वे उसका सम्मान करते हैं।

श्री गांधीने उत्तर में कहा कि मुझे गलत समझा गया है। मैं इतना ही चाहता हूँ कि आंग्ल भारतीय यूरोपीयोंको नकल न करें। आंग्ल-भारतीयोंकी अपनी एक अलग ढंगको वेश-भूषा है। इसी प्रकार मुसलमानोंकी वेश-भूषा भी अलग ढंगकी है। किन्तु मेरा मतलब किसी खास ढंगको वेश-भूषासे नहीं था। मैं यह जानता हूँ कि आंग्लभारतीय एक हदतक यूरोपीय रहन-सहनके दर्जेका अनुसरण करते हैं, किन्तु मुझे नापसन्द तो यह चीज है कि वे अपनी हैसियतसे बाहर जाकर यूरोपीयोंके समान होनेका झूठा दिखावा करते हैं, और अधिकांश मामलोंमें इसका परिणाम यह होता है कि उनका दिवाला निकल जाता है। मेरा मतलब विशेष रूपसे इस समाजके उस बहुसंख्यक वर्गसे है, जिनकी आर्थिक स्थिति किसी तरह अच्छी नहीं कही जा सकती। मेरा आशय ऊपरके तबकेके लोगोंसे नहीं था, जो इस समाजके साधारण लोगोंके साथ किसी भी बातमें मिलते-जुलते नहीं हैं। मैं चाहता हूँ आंग्ल-भारतीय सब चीजोंको भारतीय दृष्टिकोणसे देखें। यदि मेरा सुझाव गलत भी हो तो में इसका निर्णय समाजपर छोड़ता हूँ, क्योंकि अपनी स्थितिका ठीक-ठीक ज्ञान स्वयं उसीको है। :[अंग्रेजीसे]

फॉरवर्ड, ७–८–१९२५
  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ४५८-६६।

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