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कुछ शिकायतें और सुझाव

रक्षा को है? और दूसरी ओर यह याद रखकर कि वे दूसरोंकी भी है तथा उनका हिसाब देखनेवाले अन्य लोग भी है, पाई-पाईका हिसाब रखा है या नहीं। और क्या संचालकोंमें उस कामको करनेकी सामान्य शक्ति है? जिस संस्थाके सम्बन्धमें ऐसे प्रश्नोंका सन्तोषजनक उत्तर मिलता है वह टीकाकी पात्र नहीं है।

पत्र-लेखक मुझपर आरोप लगाता है कि डाॅ॰ सुमन्तके[१] सुझावको मैंने हँसीमें उड़ा दिया है। पत्र-लेखकको यह बात नहीं मालूम कि मैं डॉ॰ सुमन्तसे १९१५ में मिला था और तबसे मैं उन्हें आदरकी दृष्टि से देखता आया हूँ। उनकी त्यागवृत्ति मुझे हमेशा उनकी ओर आकर्षित करती रही है। मेरा स्वभाव एक बालकके सुझावपर भी गम्भीरतासे विचार करने का है तो फिर मैं भला डॉ॰ सुमन्तके सुझावको किस तरह हँसीमें उड़ा सकता हूँ? और फिर जिसके मनमें सेवावृत्तिके सिवा और कोई भी वृत्ति नहीं है वह भला किसी भी सुझावको हँसीमें क्यों उड़ाना चाहेगा?

उपर्यक्त आरोपसे सक्षम रूपसे मेरी स्तूति की गई है। पत्र-लेखक ऐसा मानता दिखता है कि मैं सब बातोंको तुरन्त समझ जाता हूँ। मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मुझमें ऐसी शक्ति नहीं है। इसके विपरीत में यह जानता हूँ कि कितनी ही वस्तुएँ मैं अत्यन्त परिश्रमसे ही समझ पाता हूँ। ऐसा हो सकता है कि मैं डॉ॰ सुमन्तके सुझावको न समझ पाया होऊँ। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि मैंने अपने जीवनमें एक भी सुझावको तुच्छ मानकर उसकी अवज्ञा नहीं की है।

इसके अतिरिक्त पत्र-लेखक सलाह देता है कि मुझे गोखलेके सेवक-समाज जैसे एक सेवक-समाजकी स्थापना करनी चाहिए। यहाँ भी ऊपरकी बात लागू होती है। सत्याग्रहाश्रम सेवक-समाज ही तो है। वह संस्था जैसे भी हो मेरी शक्तिकी माप है। अपनी बुद्धिके तमाम प्रयोग मैंने वहाँ किये हैं और अभी भी कर रहा हूँ। उसमें निहित अटियोंको मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं यह कहना और स्वीकार करना चाहता हूँ कि आश्रमकी त्रुटियाँ मेरी त्रुटियोंका प्रतिबिम्ब हैं। इस आश्रमके गुण-दोषोंका मूल्यांकन करनेपर यदि गुणोंका प्रमाण कम पाया जाये तो मेरा जीवन निरर्थक गया, ऐसा कहनेका जगत्को अधिकार है। ऐसा कहना उसका धर्म है क्योंकि उसमें मैंने अपनी आत्माको उँडेलनेका प्रयत्न किया है। वहाँ कोई मेरे आड़े नहीं आता, वहाँ रहनवाले स्त्री-पुरुष मेरी इच्छाके अनुसार चलते हैं। मेरे द्वारा निमन्त्रित व्यक्ति अथवा मेरे द्वारा पसन्द किये गये व्यक्ति ही वहाँ रह रहे हैं। मैं नम्रतापूर्वक कबूल करता हूँ कि इससे अधिक अच्छी वस्तु निर्माण करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। तो किसी दूसरे सेवक-समाजकी मैं किस तरह और कहाँ स्थापना करूँ? यदि स्थापना करूँ भी तो वह इसी आश्रमका प्रतिबिम्ब होगा, इसीकी शाखा-जैसा होगा।

वल्लभभाई और मैंने एक अन्य—छोटी कहो अथवा बडी—संस्थाकी स्थापनाका विचार करके भी देखा है। हम उसकी स्थापना करें तो धन भी मिल सकता है। लेकिन हम कोई निर्णय नहीं कर सकें और जैसे चलता है वैसे ही चलने दिया।

 
  1. डाॅ॰ सुमन्त मेहता, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्त्ताने सुझाव दिया था कि समाज सेवाके लिए कार्यकर्त्ता गुजरात विद्यापीठ और आश्रममें तैयार किये जाने चाहिए।