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कच्छके संस्मरण—१

 

कच्छके रास्ते

माण्डवी, भुज, कोटडा, कोठारा, वीझण, नारणपुर, डुमरांव, गोधरा, मांडवी, खाखर, भुजपर, मुन्द्रा, केरो, भुज, कोकवा, अंजार और तुणी हमारी यात्राका यह क्रम निर्धारित हुआ था। यह मैं मुन्द्रामें लिख रहा हूँ, पूरा होगा भुजमें और अंजार पहुँचने के पहले डाकमें हाल दिया जायेगा।

यात्राके पहले चौबीस घंटे तो बहुत शान्तिसे, मानो एक क्षणमें बीत गये।[१] माण्डवी पहुँचनेपर अव्यवस्था आरम्भ हुई—पहले लांचम बैठें, फिर मछवामें[२], फिर तरीमें[३], उसके बाद रथमें और फिर घोड़ा-गाड़ीमें। रथको पानीमें से चलना पड़ा था। यात्राके इस हिस्सेको मैने अव्यवस्था कहा है, क्योंकि इस व्यवस्थामें कोई नियम नहीं था। लोगोंका शोरगुल इतना ज्यादा था कि एक वाहनसे उतरकर दूसरे तक पहुँचना कठिन हो जाता था। यहाँ मैंने एक पुरानी गोदी देखी किन्तु आजकल उसका उपयोग नहीं होता।

हम २२वीं अक्तूबरको माण्डवी पहुँचे थे। आज दूसरी नवम्बर है। हिन्दुस्तानके दूसरे भागोंमें तो अबतक मैंने बहुतसे गाँवोंको देख लिया होता। लेकिन कच्छमें जिसपर मोटर जा सके ऐसे रास्ते बहुत कम है; शायद तीन या चार ही होंगे। रेलगाड़ी तो उससे भी बहुत कम चलती है। भुजसे तूणी बन्दर या खारी बन्दर जानके लिए ही रेल है। माण्डवीसे भुज, भुजसे कोटडा, और मुन्द्रासे भुज जानेके लिए ही मोटरमें सफर किया जा सकता है। दूसरी जगहोंको जानेके लिए तो बैलगाड़ीकी ही ज़रूरत होती है और मार्ग बड़े विकट होते हैं। हरएक जगह जहाँ देखा वहाँ, रेत और धूल का तो कुछ ठिकाना ही न था। बैलगाड़ी भी एक छोटा-सा इक्का होता है और उसमें केवल एक ही मनुष्य शान्तिसे बैठ सकता है, वह उसमें सो नहीं सकता है। पहले ही दिन मोटरसे जानेपर भी, मेरा हाल तो खराब हो गया था। कुछ बुखार-सा भी आ गया था। इसलिए बादमें स्वागत-समितिने मोटरमें या बैलगाड़ीमें मेरे सोनेके लिये भी व्यवस्था की थी। मेरे लिए वे एक बड़ी बैलगाड़ी अर्थात् रथ ले आये थे। कोटडासे कोठारा जानेका रास्ता बहुत ही खराब था इसलिए मुझे आधा रास्ता पालकीमें तय कराया गया था। पालकीमें बैठना मुझे पसन्द न था लेकिन यहाँपर या तो बीमार पड़ना, या कोठारा जाना ही छोड़ देना; या फिर पालकीमें बैठने की बात स्वीकार करना, तीनमें से एक बात पसन्द करनी थी। मेरी बीमारीका जोखिम उठाने के लिए स्वागत समिति भी तैयार न थी। इसलिए मैने पालकीमें बैठना स्वीकार किया। मुझे यहाँपर स्वीकार कर लेना चाहिए कि मुझे कोठाराकी तरफसे बहुत बड़ा लालच दिया गया था। वहाँ बड़े अच्छे कार्यकर्त्ता हैं, वहाँ बहुत रुपये मिलेंगे और जहाँ जानेपर मैं कच्छके दुष्कालके बारेमें भी बहुत-कुछ जान सकूँगा आदि अनेक बातें मुझसे कही गई थीं। इसलिए मैं पालकीके

 
  1. गांधीजी कच्छकी यात्रापर बम्बईसे एक स्टीमरमें २१ अक्टूबर, १९२५ को रवाना हुए थे और दूसरे दिन माण्डवी पहुँचे थे।‌
  2. छोटी नावोंके प्रकार।
  3. छोटी नावों के प्रकार।