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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जालमें फँस गया। पालकी उठानेवाले कहार राज्यके मुँहलगे मालूम होते थे। वे रास्तेभर स्वयंसेवकोंपर सरदारी दिखाते थे और यदि वे कुछ कहते तो क्रोध करते थे और उन्हें बहुत-कुछ सुनाते थे। रास्तेभर उन्होंने क्लेश और असन्तोष प्रकट किया। ऐसे मनुष्योंके द्वारा उठाया जाना मुझे बहुत अखरा। पैदल चलने की इच्छा हुई, लेकिन यह हो ही कैसे सकता था? यह तो केवल झूठा दिखावा होकर ही रह जाता। इसलिए जिस प्रकार शवको ले जाते हैं और वह कुछ भी नहीं बोलता उसी प्रकार में भी चुपचाप पड़ा सुनता रहा। अब फिर कभी पालकीमें बैठने के पहले मैं सौ बार सोचूँगा। मेरे सम्बन्धमें जो बहुतसे वहम प्रचलित है उनमें से एक यह भी है कि मुझे मोटर, रेल इत्यादि बिलकुल ही पसन्द नहीं है। एक भाईने गम्भीरतापूर्वक मुझसे यह भी प्रश्न पूछा था कि मुझे कच्छके जैसे रास्ते पसन्द हैं या पक्की सड़कें? यह वहम दूर करनेका मुझे यह ठीक अवसर मिला है। मेरा यह विश्वास है कि मानवजातिकी सभ्यताके लिए न रेलकी आवश्यकता है और न मोटरकी। लेकिन यह तो एक आदर्श परिस्थितिकी बात हुई। आज तो हिन्दुस्तानमें रेलने घर कर लिया है और जहाँ सब जगह रेल और मोटरें है वहाँ एक ही शहरको रेलसे अलग रखनेकी बेवकूफी मैं कभी नहीं करूँगा। माण्डवीतक यदि स्टीमरें जाती हैं तो फिर वहाँसे भुजतक रेलगाड़ीका मैं द्वेष नहीं करूँगा बल्कि मैं उसे पसन्द ही करूँगा। और यही मोटरके बारेमें भी। मैं मानता हूँ कि पक्की सड़कें तो होनी ही चाहिए। मोटर और रेलसे वेग बढ़ता है। लेकिन उसमें धर्म कुछ नहीं है। लेकिन पक्की सड़कें बनवानेसे तो धर्मकी भी रक्षा होती है। कच्चे धूलसे भरे हुए रास्तोंमें जानवरोंको कितनी तकलीफ होती है? मैं बैलगाड़ी और बैलगाड़ीके रास्तेमें हमेशा ही सुधार करना चाहूँगा। अच्छे रास्ते होना सुव्यवस्थित राज्यका भूषण है। पक्के और अच्छे रास्ते बनवाना राजा और प्रजा, दोनोंका फर्ज है। मोटरके लिए पक्की सड़कें होनी चाहिए तो जानवरोंके लिए क्यों नहीं चाहिए? क्या वे बोल नहीं सकते हैं इसलिए? यदि राजा यह साहस न करे तो धनिक वर्ग क्यों न करें? कच्छमें इतना साहस करना आसान है, क्योंकि वहाँके एक गाँवसे दूसरेके बीचका अन्तर कोई बहुत बड़ा नहीं है। प्रजाके लिए ऐसा साहस करना कठिन अवश्य है लेकिन अशक्य नहीं है। पहले तो यह बात प्रजाको राजाके सामने ही पेश करनी चाहिए।

अन्त्यज प्रश्न

अन्त्यज प्रश्नके सम्बन्ध में कच्छ में जो कठिनाइयाँ उपस्थित हुई, वैसी कठिनाइयोंका मुझे और कहीं भी अनुभव न हुआ था। कच्छके अन्त्यजोंमें जागृतिका होना भी इसका एक कारण है। प्रत्येक स्थानको सभामें उनके झुण्डके-झुण्ड आते थे, उन्हें स्वयंसेवकोंने लिए उत्साहित भी किया था। लेकिन दूसरी तरफसे स्वागत-समितिने सबको खुश रखनेकी नीति ग्रहण की थी। इसलिए सब जगह एक ऐसा पक्ष खड़ा हो गया था जो अन्त्यजोंके साथ बैठने में विरोध करता था। यह विरोध मैंने भुजमें पहली बार देखा। लेकिन मैंने यह मान लिया था कि वहाँ उसका निबटारा अच्छी तरहसे हो