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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अस्पृश्यताका जोर भी बहुत-कुछ कम हो गया है। कुछ धर्मान्ध लोग उसको पकड़े बैठें हैं लेकिन उनका यह प्रयत्न निरर्थक है।

मुन्द्राका अनुभव तो सबसे कड़वा रहा। वहाँ तो दंभ, कृत्रिम दिखावा और नाटक ही देखा। वहाँ तो उन्होने मुसलमानोंको भी स्पर्शास्पर्शको माननेवालोंके बाड़े में बिठाया था मानो वे भी अस्पृश्यताका पालन करते हों। परिणाम यह हुआ कि अन्त्यजोंके विभागमें केवल मेरे साथी और मुसलमान स्वयंसेवक ही रह गये थे। हिन्दू स्वयंसेवकोंमें अधिकांश यद्यपि, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा था, अस्पृश्यताको बिलकुल न माननेवालों में से थे किन्तु उन्हें उसी स्पर्शास्पर्शको माननेवालोंके ही बाड़ोंमें बिठाया गया था।

मुन्द्रामें एक अन्त्यज पाठशाला चलती है किन्तु उसे एक उदार मुसलमान सेठ इब्राहीम प्रधान अपने पैसेसे चलाते हैं।

यह पाठशाला बहुत हदतक अच्छी कही जा सकती है। बालकों को बहुत साफ रखा जाता है। मकान शहरके मध्य भागमें है। बालकोंको संस्कृतके श्लोक भी रटाये गये थे; अलबत्ता उनका उच्चारण बहुत टूटा-फूटा था। कताई, धुनाई, ओटाई और बुनाईकी क्रियाएँ पाठशालामें ही होती थी। एक ही कमी थी—बालकोंकी पोशाक खादीकी न थी। किन्तु संचालकोंने जो कपड़ा पहना था वह उसे शुद्ध खादी मानकर ही पहना था। पाठकोंको लगेगा कि इस पाठशालाको देखकर तो अवश्य ही मुझे सन्तोष हुआ होगा। लेकिन मुझे सन्तोष नहीं हुआ, उलटा दुःख हुआ। कारण, इसका श्रेय अथवा पुण्य किसी हिन्दूके हिस्से नहीं आता। पाठशालाका खर्च उठानेवाले सेठका नाम ऊपर दे चुका हूँ। संचालक आगाखाँके मुन्द्रा-स्थित प्रतिनिधि है। सेठ इब्राहीम प्रधान अपनी दानशीलताके लिए हमारे धन्यवादके पात्र हैं क्योंकि मुझे बताया गया है कि यह पाठशाला अन्त्यजों अथवा उन बालकोंको मुसलमान बनाने के लिए नहीं चलाई जाती। उसे चलाने में संचालकोंका उद्देश्य यही है कि उन्हें हिन्दूके रूपमें अपनी उन्नति करने योग्य बनाया जाये। मुन्द्राके निवासियोंने मुझे यह भी बताया कि संचालक श्री मेघजी वेदान्ती और ज्ञानी हैं। यह सब अवश्य सन्तोषप्रद कहा जायेगा। किन्तु इसमें हिन्दुओंने तो कुछ किया नहीं। अस्पृश्यता हिन्दूधर्मका मैल है, हिन्दू धर्मका पाप है। इसका प्रायश्चित्त तो हिन्दुओंको ही करना होगा। मेरे शरीरका मैल मैं स्वयं ही निकालू तभी निकलेगा। यह संस्था सेठ इब्राहीम प्रधानके लिए जितनी सम्मानजनक है, हिन्दुओंके लिए उतनी ही लज्जाजनक।

लेकिन जिस तरह इस यात्रामें दुर्भाग्यवश ऐसी कुछ दुःखद चीजें देखने में आई उसी तरह बहुत-कुछ ऐसा भी हुआ जो सुखद था। 'नवजीवन' के पाठक श्री जीवराम कल्याणजीके नामसे तो परिचित ही है। अन्त्यजोंकी सेवाको उन्होंने अपना धर्म बना लिया है। उनकी दानशीलता प्रशंसाके योग्य है लेकिन यह उनका सबसे बड़ा गुण नहीं है। उनका सबसे बड़ा गुण तो उनका स्वयं सेवा करने का आग्रह है। वे अपना धन और अपना समय खादी और अन्त्यजोंके कार्य में लगाते हैं। माण्डवीके श्री गोकलदास खीमजी भी निर्भय भावसे खूब अन्त्यज सेवा कर रहे हैं। वे एक सुन्दर अन्त्यज