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कच्छके संस्मरण—१

पाठशाला चला रहे हैं और उसका सारा खर्च स्वयं उठाते हैं। ऐसे निष्ठावान अन्त्यज सेवक मैंने कच्छमें जगह-जगह देखे। अतः कुल मिलाकर वहाँ अस्पृश्यता-निवारणके सम्बन्धमें मैं निराशाका कोई कारण नहीं देखता। सभाओंमें जब-तब जो लज्जाजनक दृश्य देखे गये, उन्हें मैं क्षणिक मानता हूँ। स्थायी कार्य तो हो ही रहा है और मुझे इसमें कोई शंका नहीं है कि वह होता रहेगा।

लेकिन राज्यकी ओरसे अन्त्यजोंको काफी कष्ट है। अन्त्यजोंके सम्बन्धमें वहाँ एक कानून है जिसे कुछ भाइयोंने तो व्यभिचार [सम्बन्धी अपराधोंके लिए दण्ड देने] का इजारा कहकर वणित किया है। उस कानूनके अनुसार अन्त्यजोंमें व्यभिचारकी जो घटनाएँ होती है, उनके अपराधियोंको सजा दी जाती है। ऐसे अपराधियोंको सजा देने का यह कार्य कुछ लोगोंको इजारेकी तरह सौंप दिया जाता है। होता यह है कि जो सबसे ज्यादा पैसा देता है, उसे राज्य अधिकार देता है कि ऐसे अपराधियोंको वही पकड़ सकता है और अपराधके लिए उनपर जो जुर्माना किया जायेगा उसकी रकम भी उसीको मिलेगी। परिणाम यह होता है कि ऐसे अपराधोंको बढ़ाना उक्त इजारेदारका धन्धा हो जाता है। वह जहाँ व्यभिचार न हो वहाँ उसे पैदा करके या झूठमूठ उसका आरोपण करके पैसा कमाता है। अन्त्यजीको इससे बहुत कष्ट है।

बुनकरोंको भी ऐसी ही एक अन्य तकलीफ भोगनी पड़ रही है। तकलीफ यह है कि जिन साहूकारोंसे उन्होंने पैसा लिया हो उनका पैसा जबतक पूरा चुक नहीं जाता तबतक वे दूसरोंके लिए नहीं बुन सकते। इसलिए उन्हें अपने इन एक-दो साहूकारोंका गुलाम होकर रहना पड़ता है। वे उसे उसके कामका जितना पैसा दें उतना स्वीकार करना और उन्हींके लिए बुनते रहना पड़ता है। साहूकार अपनी रकमपर उनसे मनचाहा ब्याज माँगता है और उनके कामका उन्हें मनचाहा दाम देता है। फलतः साहुकारोंके पंजेसे अन्त्यज छूट ही नहीं सकते। इससे हैरान होकर कईको तो अपना धन्धा ही छोड़ देना पड़ा है। कच्छमें हज़ारों अन्त्यज बुनकर हैं और यदि ऐसा निर्दय कानून न हो तो वे सुखपूर्वक अपनी जीविका चला सकते है। मैं आशा करता हूँ कि कच्छ-नरेश इन दुखी लोगोंको इन दो आपत्तियोंसे मुक्त करेंगे। मैंने उनके सामने इन दोनों शिकायतोंको पेश तो किया ही है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १५–११–१९२५

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