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२२७. भाषण : अंजारमें[१]

२ नवम्बर १९२५

कच्छमें यह मेरी अंतिम सभा है। अभी कार्यक्रम में दो तीन चीजें रह गई है। परन्तु यह सभा तो अन्तिम ही है। अब मेरी इच्छा यह नहीं हैं कि जो बातें अनेक सभामें अनेक प्रकार से दोहरा चुका हूँ, उन्हें फिर दोहराऊँ। मेरे विचार आप अनेक जगह पर अनेक प्रकारसे जान चुके हैं—उन्हें बार-बार सुनना निरर्थक है।

मैं इतना ही कहता हूँ कि जिस तरह समस्त भारत-वर्षमें उसी तरह कच्छमें भी प्रत्येक स्थानपर मैंने अपने प्रति प्रेम—और केवल प्रेम भावना का अनुभव किया है। मुझे अपने लिए जितनी सेवाकी ज़रूरत है उससे कई ज्यादा सेवा मुझे कच्छसे प्राप्त हुई है। प्रत्येक स्थानपर भाई-बहनोंने मुझे सुखी करनेमें, मेरी निजि आवश्यकताओं-

 
  1. महादेव देसाईने अपनी टिप्पणियोंमें कट्टरपंथी हिन्दुओंकी इस सभाकी पूर्व-पीठिकाका वर्णन किया है। इससे इस बातपर भी प्रकाश पड़ता है कि अस्पृश्यता निवारणके काममें गांधीजीके सामने यहाँ किस प्रकारकी कठिनाइयाँ आने लगी थीं। यहाँ उसका जो अंश दिया जा रहा है उससे इस समस्याके प्रति गांधीजीके अपने रवैयेका भी खुलासा होता है। अंश इस प्रकार है:
    "उन्होंने (गांधीजीने) कट्टरपंथियों के अध्यक्षको, जो हमारे मेजवान भी थे, सुझाव दिया कि कट्टरपंथियोंकी सभा करने और मानपत्र भेंट करनेका खयाल छोड़ दिया जाये और उसके बदले अस्पृश्यों के हलकेमें एक आम सभा बुलाई जाये, और तव अगर ज़रूरी हो तो कट्टरपंथियोंके साथ भी एक विचार-गोष्ठी आयोजित की जाये। इसपर अध्यक्षने कहा : लेकिन हमने तो पहलेसे ही सारा इन्तजाम कर रखा है। अगर हम आपके कुछ विचारोंसे सहमत न हों तो इसमें अस्वाभाविक क्या है? हम आपका सम्मान करना चाहते हैं। और आपको हम लोगोंको आपकी सलाह सुननेके सौभाग्यले वंचित नहीं करना चाहिए। गांधीजीने कहा : "लेकिन जब आप उसी चीजको स्वीकार नहीं करते जो मेरे हृदयको सबसे अधिक भाती है, जब आप उन्हीं लोगोंका अपमान करते हैं जो मुझे प्राणोंसे भी प्यारे है, तब फिर मेरा सम्मान करने में क्या तुक है? और फिर कुछ औचित्यका खयाल भी होना चाहिए, थोड़ी शिष्टता भी बरतनी चाहिए। मैंने ऐसे यूरोपीयोंकी सभाओं में भाषण दिये हैं, जो मेरे एक भी विचारसे सहमत नहीं थे। लेकिन, वे अपना कर्त्तव्य बहुत अच्छी तरह समझते हैं। वे इस बातको छिपाते नहीं कि सभामें मेरे साथ कोई मुरौवत नहीं की जायेगी। लेकिन वे स्वागत और सम्मान करना जानते हैं। कलकत्तामें सिर्फ मेरा खयाल करके उन्होंने विशुद्ध निरामिष भोजकी व्यवस्था की थी। और यहाँ? यहाँ तो आप ऐसा करते हैं कि मैंने भुजमें जिस अस्थायी व्यवस्थाका सुझाव दिया था उसको तोड़-मरोड़कर आपने ऐसा रूप दे दिया जो आपके मनके अनुकूल था और मुन्द्रामें तो आप उस छूटका उपयोग बेहूदगीकी सीमातक करने में भी नहीं हिचकिचाये। अगर मैं अपने लड़केसे कहूँ कि तुम मुझे जितनी गालियाँ देना चाहो, दो और वह मुझे हर सुबह जी-भर कर गालियाँ देना अपना कर्तव्य बना ले तो यह कैसा लगेगा? आपने यही तो किया है। माण्डवीमें पहले दिनकी सभामें मैंने कहा कि अध्यक्ष महोदय जरा दूरसे ही मानपत्र मेरे हाथमें डाल दे सकते थे और दूसरे दिनकी सभाके अध्यक्षने मेरे इस सुझावका लाभ उठानेमें तनिक भी विलाव नहीं किया। क्या आप इसी तरहसे मेरा सम्मान करना चाहते हैं?" अध्यक्षने आग्रहपूर्वक कहाँ, "नहीं, लेकिन आपको अपने विचार बार-बार दोहराते लेना चाहिए, ताकि किसी दिन वे लोगोंके हृदयमें जड़ पकड़ लें"। गांधीजीने अपना पक्ष विस्तारसे समझाते हुए कहा : मैं उन उपदेशोंके साथ होड़ करने नहीं जा रहा हूँ। जो अनिच्छूक श्रोताओंके सामने दिन-रात अपना उपदेश झाड़ते रहते हैं। अगर आप मेरे विचार जानना और समझना चाहते हैं तो अच्छा होता, आप साबरमती आश्रम चले आते उस छोटे-से स्थान भुजपारमें जब संयोजकोंने देखा कि मेरी शर्तोंपर मेरा स्वागत नहीं किया जा सकता और मुझे मानपत्र नहीं दिया जा सकता, तो उन्होंने स्वागत करने और मानपत्र भेंट करनेका इरादा छोड़ दिया और अस्पृश्योंके हल्केमें सभाकी। यह उनकी ईमानदारी और साहसका सूचक था। मैं आपसे विनती करता हूँ कि इन झूठ-मूठके प्रर्दशनोंसे बाज आयें। मैं तो यह भी नहीं चाहता कि आप मेरे और मेरे साथियोंकी खातिरदारी करें। अस्पृश्योंका अतिथि होना मुझे खुशी होगी। अपनी शक्तिके अनुसार वो मेरा जो भी थोड़ा-बहुत किंतू सच्चा आतिथ्य करेंगे उनसे मेरी आत्मा प्रसन्न होगी।" लेकिन अध्यक्ष महोदय इतनेसे ही अपना आग्रह छोड़नेवाले नहीं थे। उन्होंने कहा : "लेकिन हमनेतो सारा इन्तेज़ाम कर दिया है। स्वागत समितिभी मानपत्र भेंट करनेके लिए काफी उत्सुक हैं। आपकी बात मैं समझता हूँ, लेकिन हमने तो आपको जाने बिना ठीक-ठीक सारा प्रबन्धन कर लिया है।" "आप तो मुझे जान भी कैसे सकते हैं? मुझे तो आप लोग तभी जानेंगे, जब मैं दुनियाँमें नहीं रहुँगा।" अंडर कट्टरपंथियोंकी सभा पहले कि जाती और अस्पृश्योंकी बादमें तो अध्यक्ष महोदय शाय़द संतुष्ट हो जाते लेकिन जो बात गांधीजीने सुझाई थी वह उनकेे लिए अपमानजनक थी। इसपर गांधीजीने उनसे स्वागत समितिकी बैठकमें बुलाकर अपना सुझाव उसके सामने रखनेकी सलाह दी उसके बाद ही निर्णय लेने को कहा। अंतमें उन्होंने साफ कहा कि : "लेकिन याद रखिए बीच के रास्ते से काम नहीं चलेगा। या तो मेरा सुझाव ज्योंका त्यों स्वीकार कीजिए या फिर अपने जैसा प्रबन्ध किया है और उसके अनुसार अपना कार्यक्रम पुरा कीजिए"। समीतिकी बैठक दो घंटे तक चली। उसने बात और मंच बनाने की विस्तृत योजना बनाई। तब पाया गया कि अध्यक्ष थोड़ी दूरीसे ही भाषण करेंगे। समितिके आठ सदस्य अस्पृश्योंके पास बैठेंगे, और शहरके सेठ गांधीजीको मान-पत्र भेंट करेंगे; ना कि माण्डवी की तरह दूरसे ही हाथमें ढाल देंगे। अलबता घर जाकर वे शुद्धिके करेंगे! अब दलिलके लिए कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी। सब-कुछ जानकर गांधीजीने कहा : "तो आप मेरी इच्छानुसार नहीं चलना चाहते, बल्कि चाहते हैं कि; मैं आपकी इच्छा अनुसार चलूँ"। इसपर अध्यक्षने कहा : "हाँ श्रीमान! समितिकी यही इच्छा है।" गांधीजीने इस पराजय को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया, और सभामें जाकर मानपत्र स्वीकार कर लिया।