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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लेकिन मुझे चाह इस चीजकी नहीं। मैं जिस वस्तुका भूखा हूँ, जिसके लिए तरसता है वह अलग ही वस्तु है। ईश्वर चींटीको कन और हाथीको मन देता है। देता ही रहेगा। इसलिए पेट भरने और आवश्यकताएँ पूरी करने की बातमें कोई विशेषता नहीं है। यह वस्तु तो मनुष्य और पशुमें समान है। चींटी कन प्राप्त करके जितने आनन्दका अनुभव करती होगी उतने आनन्दका अनुभव शायद हम पकवान खाकर भी नहीं करते होंगे।

इसलिए आपके असीम प्रेमको स्वीकार करके मैं इतना ही कहूँगा कि आप मुझपर ऐसे प्रेमका बोझ न लादें। जिस प्रेमपर मैं रीझता हूँ उस प्रेमकी बात मुझे आज नहीं करनी है। यदि करूँगा तो आपको दुःख होगा—यद्यपि आप उसे सुनेंगे अवश्य, तो भी मैं उसे नहीं सुनाऊँगा।

संसारके सभी धर्मशास्त्रोंमें लिखा है कि जब मनुष्यपर दुःख पड़े तब उसे ईश्वरका स्मरण करना चाहिए। जब द्रोपदीके पति उसकी सहायता न कर सकें। उसने कृष्णके आगे रोकर सहायता प्राप्त की। सीताजी जब अशोक वनमें अकेली थीं तब उन्होंने एक रामनामकी रट लगाकर ही आश्वासन प्राप्त किया। मेरे साथ जेलमें मेरे भाई-बन्धु भी ईश्वरका नाम लेकर अपने दुःखको भूलते थे, आश्वासन पाते थे।

मेरे साथ एक सुशिक्षित और सरल हृदय नवयुवक था—शंकरलाल बैंकर। उसे जेलका तो कोई दुःख न था परन्तु उसे अपने मनका दुःख था। उसके मनमें अनेक तरंगें उठा करती थीं, मन ही मन वह निरन्तर सुलगता रहता था। उसने क्या उपाय किया? सबेरे चार बजे उठकर कड़कती सर्दी में, ठण्डकी परवाह किये बिना, उसका पहला काम यह होता था कि बत्ती जलाकर वह चरखा चलाया करता था। लेकिन मैं आज चरखेकी बात भी नहीं करना चाहता।

लेकिन उसने चरखे चलानेके साथ-साथ जो किया सो कहना चाहता हूँ। उसने रामनाम रटना शुरू किया। रामनाम लेनेसे वह प्रसन्न चित्त रहने लगा। उसमें इतना परिवर्तन हो गया कि उसका दारोगा उसके पास बार-बार जाता था लेकिन वहाँसे थककर चला आता था और आकर मुझसे कहता था कि वह तो अपनी धुनमें ही रहता है। वह भला, उसका चरखा भला—उसके साथ क्या बात की जाये?

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८–११–१९२५