पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/४७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४१
कवि-गुरु और चरखा

दृष्टिसे भारतमें प्रथम स्थान प्राप्त करे। मुझे विश्वास है कि यदि वह इस कार्यको सफलतापूर्वक कर सकी तो यह मान सकते हैं कि अहमदाबादने स्वराज्यके आन्दोलनमें खासा हिस्सा अदा कर दिया।

किन्तु यह काम बहुत बड़ा है। यह एक-दो आदमियोंके करनेका नहीं है। इस छप्परको उठानेके लिए हर स्त्री-पुरुष, हर युवक-युवती, हर स्वराज्यवादी और अपरिवर्तनवादी, हर उपाधिधारी और सामान्य-जन एवं हर अमीर और गरीबको कन्धा लगाना चाहिए; केवल तभी अहमदाबाद आदर्श नगर बन सकता है। यदि हममें से हरएक व्यक्ति शहरके किसी भी हिस्सेको गर्द और गन्दगीको हटानेका अलग-अलग जिम्मा ले ले और यदि हम शहरके सब हिस्सोंको ऐसा हो साफ रख सकें जैसा हम अपने घरोंको साफ रखते है, तभी अहमदाबाद आदर्श नगर बनेगा।

धनिकोंको धनसे, सफाईके विशेषज्ञोंको अपने ज्ञानसे और अन्य प्रत्येक व्यक्तिको अपनी ऐच्छिक सेवासे इसमें सहायता देनी चाहिए। आज हम जो काम कर रहे है उसके मार्गमें अज्ञान, उदासीनता और विरोधकी भावना बाधा डालती है। शहरको साफ करने के लिए स्वयंसेवक क्यों नहीं मिलने चाहिए? स्कूलों और कॉलेजोंके लड़कोंको सफाईकी शिक्षा क्यों नहीं मिलनी चाहिए और उन्हें इस काममें स्वयंसेवक रूपमें आगे क्यों नहीं आना चाहिए?

डाक्टर हरिप्रसादके पत्र में कई अन्य विचार भी मिलते है; किन्तु मैं नहीं चाहता कि इस पुस्तिकाके बाद एक और पुस्तिका लिख दूँ। हम सबको डाक्टर हरिप्रसादके मीठे व्यंग्यको समझना और सराहना चाहिए और मानव हितके इस कार्य में सहायता देनी चाहिए। यदि उनके पत्रका फल ऐसा निकलता है तो मैं मानूँगा कि पत्र लिखने में किया गया उनका श्रम व्यर्थ नहीं हुआ और मैंने भी इस पत्रको व्यर्थ नहीं छापा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २९-१०-१९२५ तथा ५-११-१९२५
 

२३१. कवि-गुरु और चरखा

कुछ समय पहले जब सर रवीन्द्रनाथकी चरखेकी आलोचना[१] प्रकाशित हुई थी, उस समय कई मित्रोंने मुझसे उसका उत्तर देनेके लिए कहा था। उस समय काममें बहुत व्यस्त होनेके कारण में आलोचनाका सांगोपांग अध्ययन नहीं कर पाया था। लेकिन उसे मैंने इतना तो पढ़ा ही था कि यह जान सकूँ कि उसका रुझान किस ओर है। उसका उत्तर देने की मुझे कोई जल्दी नहीं थी और यदि मेरे पास तब समय होता और मैं उत्तर देता भी तो जिन्होंने वह आलोचना पढ़ी थी वे उस समय इतने उद्वेलित थे या उससे इतने प्रभावित थे कि मैं जो-कुछ भी लिखता, उसको वे ठीक रूपमें ग्रहण नहीं कर पाते। इसलिए उस विषयपर मेरे उत्तर लिखनेका तो

 
  1. देखिए परिशिष्ट ५।