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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उचित समय अब आया है, क्योंकि अब कवि-गुरुकी टीका और मेरे उत्तरपर, यदि उसे उत्तर कहा जा सकता है तो, उद्वेगरहित राय कायमकी जा सकेगी।

यह आलोचना चरखेके विषयमें कवि गुरु और आचार्य सीलके रवैयेके प्रति आचार्य रायके[१] असहिष्णुतापूर्ण रुख रखनेके कारण उनको बताई गई एक कड़ी फटकार और चरखेके प्रति एकांगी और अत्यधिक प्रेम रखनेके कारण मुझपर की गई एक मीठी चोट है। लोगोंको मालूम होना चाहिए कि कवि-गुरु चरखेकी जबर्दस्त आर्थिक महत्ताको अस्वीकार नहीं करते और यह भी मालूम होना चाहिए कि अपनी आलोचनाके बाद उन्होंने अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारकके लिए की गई अपीलपर दस्तखत भी किये हैं और दस्तखत करते समय मुझे उन्होंने यह सन्देशा भी भेज दिया कि उन्होंने चरखेके विषयमें कुछ ऐसी बात लिखी है जो शायद मुझे अच्छी न लगे। इसलिए मुझे इस बातका आभास मिल गया था कि क्या होने जा रहा है। किन्तु उनकी आलोचनासे मुझे कोई नाराजगी नहीं हुई। मेरे विचारोंसे उनके असहमत होने-भरसे मैं क्यों नाराज हो जाऊँ? यदि इस तरह हरएक मतभेदको लेकर आदमी नाराज होने लगे तब तो जीवन कष्टकर भावनाओंका घर और इस तरह भाररूप ही बन जाये, क्योंकि किसी भी मुद्देपर कोई दो व्यक्ति सोलहों आने एकमत नहीं होते। इसके विपरीत दो टूक आलोचनाएँ पढ़कर तो मुझे बड़ी खुशी होती है। कारण, मतभेदोंके कारण हमारी मित्रता और भी गहरी हो जाती है। मित्रोंको मित्र होनेके लिए यह जरूरी नहीं कि वे सब तो क्या, अधिकांश बातोंमें भी परस्पर एकमत हों। हाँ, इतना जरूर है कि मतभेदमें तीव्रता नहीं होनी चाहिए और कटता तो बिलकुल ही नहीं। मैं साभार स्वीकार करता हूँ कि कवि-गुरुकी आलोचनामें ऐसी कोई तीव्रता या कटुता नहीं है।

मुझे प्रारम्भ में इतनी बातें इसलिए कहनी पड़ीं कि मैंने ऐसी अफवाह सुनी कि इस आलोचनाका मूल कारण ईर्ष्याही है। ऐसी निराधार शंकाएँ दुर्बल असहिष्णुताके वातावरणको द्योतक है। जरा ध्यानसे सोचनेपर स्पष्ट हो जायेगा कि यह हृदयहीन आरोप बिलकुल निराधार है। मुझमें ऐसा क्या है, जिससे कवि-गुरु मुझसे ईर्ष्या करेंगे? ईर्ष्याके लिए पहले प्रतिद्वन्द्विताकी सम्भावना होनी चाहिए। सो मैं तो अपने जीवनमें कभी एक तुकबन्दी भी नहीं कर पाया हूँ। कवि-गुरुमें जो-कुछ है, उसका अंश भी मुझमें नहीं है। उनकी महत्ताको प्राप्त करनेकी आकांक्षा मेरे मनमें कभी नहीं आ सकती। वे अपनी महत्ताके निविवाद अधिकारी है। आज संसारमें कोई दूसरा कवि उनकी बराबरी नहीं कर सकता। वे अपने क्षेत्रमें जिस निर्विवाद स्थितिके अधिकारी हैं, उससे मेरे "महात्मापन" का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह बात समझ लेनी चाहिए कि हमारे कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं और वे कहीं भी एक-दूसरेसे नहीं टकराते। कवि-गुरु अपनी ही कल्पनाके भव्य लोकमें—अपने विचारोंकी दुनियामें रहते हैं, जबकि मैं किसी दूसरेकी बनाई चीजका—चरखेका गुलाम हूँ। कवि अपनी बंसीको तानपर अपनी गोपियोंको नचाता है और मैं अपनी

  1. प्रफुल्लचन्द्र राय।