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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

काव्य-साधना छोड़ दें, किसान हल छोड़ दें, वकील वकालत छोड़ दें और डाक्टर अपना धन्धा छोड़ दें। लेकिन यह बात सत्यसे बहुत दूर है। मैंने किसीसे भी यह नहीं कहा है कि वह अपना धन्धा छोड़ दे; जो कहा है वह बस इतना ही कि वह समग्र राष्ट्र के लिए यज्ञके रूपमें प्रतिदिन सिर्फ तीस मिनट कताईके लिए देकर अपने धन्धेको और भी शोभान्वित करे। हाँ, मैंने ऐसे दुष्काल पीड़ित स्त्री-पुरुषोंसे, जो किसी तरहका काम न मिलनेके कारण बेकार बैठें रहते हैं, आजीविकाके लिए और अधभूखे किसानोंसे अपने फुर्सतके समयमें अपनी अल्प आयमें कुछ वृद्धि करने के लिए कातने के लिए अवश्य कहा है। यदि कवि-गुरु भी इस प्रकार रोजाना आधा घंटा कातें तो उनकी कविता और भी निखरेगी। कारण, तब उनकी कवितामें गरीबोंके दुःख दर्दोंका आजकी अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त चित्रण होगा।

कवि-गुरुका खयाल है कि चरखेकी अवधारणा राष्ट्रमें मृत्यु-जैसी एक रसता लानेके लिए की गई है और ऐसा मानकर वे कहते हैं कि यदि उनसे बन पड़े तो वे इससे दूर ही रहना चाहेंगे। सचाई यह है कि चरखेका उद्देश्य हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंके हितोंमें जो बुनियादी और जीवन्त ऐक्य है, उसे मूर्त करना है। प्रकृतिके भव्य और क्षण-क्षण बदलते हुए रूपके भीतर भी हेतु, योजना और आकृतिको एकता दिखाई देती है, जो उतनी ही स्पष्ट है, जितना कि उसका वैविध्यमय बाह्य रूप। दो मनुष्य कभी एकसे नहीं होते —यहाँतक कि जुड़वाँ लड़के भी एकसे नहीं होते हैं। और फिर भी मनुष्यजातिमें बहुत-सी बातें अनिवार्यतः एक-सी होती हैं। और आकृतिकी समानताके पीछे भी एक ही जीवनतत्त्व व्याप्त है। इस एकता या समरूपताके सिद्धान्तकी चरम परिणति शंकराचार्यमें हुई। उन्होंने बताया है कि सत्य एक ही है, ब्रह्म एक ही है; नाम-रूप तो माया है, भ्रम है और क्षणभंगुर है। यहाँ हमें इस बातपर बहस करनेकी कोई जरूरत नहीं है कि जिसे हम देख रहे है, क्या वह असत् है और क्या इस असत्के मूलमें जिसे हम देख नहीं सकते वही सत् है। यदि आप कहना चाहें तो दोनोंको समान रूपसे सत् कह लीजिए। मैं जोकुछ कहना चाहता हूँ, वह इतना ही है कि इस विविधता और अनेकतामें भी एक प्रकारका ऐक्य है, समानता या तादात्म्य है। और इसी तरह मैं यह मानता हूँ कि धन्धोंकी विविधताके पीछे एक कोई अनिवार्य समानता भी है। क्या खेतीका काम मानवजातिके अधिकांश सदस्योंका सामान्य धन्धा नहीं है? इसी प्रकार अभी थोड़े समय पूर्व तक क्या कताई भी मनुष्य-जातिके अधिकांश हिस्सेका एक सामान्य धन्धा नहीं था? जिस प्रकार राजा और किसान, दोनोंको खानेकी और कपड़े पहननेकी आवश्यकता है, उसी प्रकार दोनोंको अपनी-अपनी बुनियादी आवश्यकताओंको पूरा करनेके लिए मेहनत करना भी जरूरी है। राजा भले ही केवल यज्ञके भावसे और सांकेतिक तौरपर ही शारीरिक श्रम करे, लेकिन यदि वह स्वयं अपने प्रति और अपनी प्रजाके प्रति ईमानदारी बरतना चाहता है तो उसके लिए कमसे-कम इतना करना अनिवार्य है। आज यूरोप शायद इस महत्त्वपूर्ण आवश्यकताको न समझ सके, क्योंकि उसने गैर-यूरोपीय राष्ट्रोंका शोषण करना अपना धर्म बनाया है। लेकिन यह धर्म भ्रम