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कवि-गुरु और चरखा

मूलक है, जो निकट भविष्यमें ही नष्ट हो जायेगा। गैर-यूरोपीय राष्ट्र इस शोषणको सदा ही बर्दाश्त नहीं करते रहेंगे। मैंने इसमें से निकलने के लिए एक ऐसा रास्ता दिखाया है, जो शान्तिपूर्ण मानवके लिए शोभनीय है और इसलिए गौरबका रास्ता है। हो सकता है कि वे इस रास्तेको अस्वीकार कर दें; लेकिन तब फिर मात्र शक्तिपरीक्षाका ही मार्ग बाकी रह जायेगा, जिसमें एक पक्ष दूसरेको नीचा दिखाने का प्रयत्न करेगा। उस समय जब वे गैर-यरोपीय राष्ट्र यरोपीय राष्ट्रोंके शोषण करनेका प्रयत्न करेंगे, तब यूरोपवालोंको चरखेकी शक्ति, उसमें छिपे सत्यको समझना पड़ेगा। अगर हमें जीवित रहना है तो सांस भी लेनी होगी, भोजन भी करना होगा और कपड़ा भी पहनना ही होगा। किन्तु, जिस प्रकार हम इंग्लैंडसे हवा मँगाकर सांस नहीं लेंगे और न वहाँसे भोजन मँगाकर खायेंगे उसी प्रकार हमें कपड़े भी वहाँसे नहीं मँगाने चाहिए। इस सिद्धान्तको अपनी चरम परिणतितक ले जानेमें भी मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं होती। इसलिए मैं तो कहूँगा कि बंगालको बम्बईसे या बंगलक्ष्मीसे भी अपने लिए कपड़े नहीं मँगाने चाहिए। यदि बंगाल शेष हिन्दुस्तानका या बाहरके किसी देशका भी शोषण किये बिना अपना स्वाभाविक और स्वतन्त्र जीवन बिताना चाहे तो जिस प्रकार वह अपने लिये अपने गाँवोंमें भी अनाज पैदा कर लेता है, उसी प्रकार उसे अपने लिए कपड़े भी अपने गाँवोंमें ही तैयार करने चाहिए। मशीनोंका अपना स्थान है, और अब इसने अपने पाँव जमा भी लिये हैं। किन्तु जिस हदतक मानवीय श्रम अनिवार्य है, उस हदतक मशीनोंको उस श्रमका स्थान नहीं लेने देना चाहिए। सुधरे किस्मका हल एक अच्छी चीज है। लेकिन अगर संयोगवश कोई व्यक्ति ऐसे यन्त्रका आविष्कार कर ले जिससे वह हिन्दुस्तान-भरकी सारी जमीन अकेले ही जोत सके और हिन्दुस्तानकी सारी कृषि और कृषि-उत्पादन उसीके हाथमें चले जायें तो लाखों लोग भुखमरीकी स्थितिमें पहुँच जायेंगे और रोजगारके अभाव में वे जड़ हो जायेंगे। सच यह है कि आज बहुतसे लोग इस स्थितिमें पहुँच चुके हैं : और हर घड़ी और भी बहुत-से लोगोंके उसी अवांछनीय स्थितिमें पहुँच जानेका खतरा बना हुआ है। चरखेमें मैं हर तरहके सुधारका स्वागत करूँगा। लेकिन मैं जानता हूँ कि जबतक करोड़ों किसानोंको उनके घरमें कोई दूसरा धन्धा करनेके लिए न दिया जाये, तबतक हाथकी मेहनतसे चरखा चलानेके स्थानपर शक्ति-चालित कताई-यन्त्रोंको प्रतिष्ठित कर देना गुनाह है।

आयरलैंडवाला उदाहरण कोई विशेष तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। जहाँतक वह हमें आर्थिक सहयोगकी आवश्यकताको प्रतीति कराने में सहायक है, वहाँतक तो बिलकुल ठीक है। लेकिन हिन्दुस्तानकी परिस्थिति जुदा होने के कारण हम लोग जुदा तरीकेसे ही ऐसे सहयोगको सफल बना सकते हैं। भारतकी समस्याको देखते हुए तो यदि आर्थिक सहयोगका लाभ १,९०० मील लम्बे और १,५०० मील चौड़े इस देशके अधिकांश लोगोंको देना हो तो इस दिशामें हर प्रयत्न चरखेको केन्द्र मानकर ही किया जाना चाहिए। सर गंगाराम-जैसा कोई व्यक्ति हमारे सामने आदर्श फार्मका नमूना पेश कर सकता है, लेकिन पैसे-पैसेके लिए मोहताज भारतीय किसानके