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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


भ्रातृत्वका अर्थ ऐसे लोगोंके प्रति हमदर्दी या प्रेम जाहिर करना अथवा मित्रताका हाथ बढ़ाना नहीं है, जो कि बदले में आपसे प्रेम करें। यह तो मोल-तोल करना है। भ्रातृत्व सौदेबाजीकी चीज नहीं है। और मेरा दर्शन, मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि भ्रातृत्व केवल मानव-जातितक ही सीमित नहीं है अर्थात् यदि वास्तवमें हमने भातृत्वको भावनाको हृदयंगम कर लिया है तो निम्न स्तरके प्राणी भी उसकी सीमामें आ जाते हैं। ३० या ३५ वर्ष पूर्व इंग्लैंडमें लोकोपकारक संस्थाओं द्वारा कुछ पत्रिकाएँ प्रकाशित की जाती थीं। मुझे याद है कि ऐसी एक परोपकारी संस्थाकी ओरसे प्रकाशित होनेवाली किसी एक पत्रिकामें मैंने कुछ सुन्दर छन्द पढ़े थे। उनका शीर्षक शायद 'बैल मेरा भाई' (माई ब्रदर ऑक्स) था। उनमें लेखक आकर्षक ढंगसे यह बताता है कि जो लोग साथी मानवोंसे प्यार करते हैं, उनके लिए अपने साथी प्राणियोंसे भी प्यार करना किस प्रकार एक आवश्यक कर्तव्य है। साथी प्राणियोंसे, यानी मनुष्यसे निम्नस्तर प्राणियोंसे। इस विचारने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया। उस समय मैंने हिन्दू धर्मके बारेमें बहुत कम पढ़ा था। मैंने अपने आसपाससे, अपने मातापितासे या दूसरे लोगोंसे उसके जो तत्त्व हृदयंगम किये थे, उतना ही मैं उसके बारेमें जानता था। किन्तु मैंने उन छन्दोंमें निहित सत्यके तत्त्वका अनुभव अवश्य किया। लेकिन म आज भ्रातृत्वक इस बहत्तम स्वरूपपर नहीं बोलना चाहता। म अपनको केवल मानव-भ्रातृत्वतक ही सीमित रखूगा। इस विषयकी चर्चा मैंने यह समझानेके लिए की है कि यदि हम अपने दुश्मनोंसे भी प्रेम करनेके लिए तैयार नहीं हैं तो हमारा भ्रातृत्व एक उपहासकी वस्तु ही है। दूसरे शब्दोंमें, जिसने भ्रातृत्वकी भावनाको हृदयंगम कर लिया है, वह अपने बारेमें किसीको यह कहनेका मौका नहीं दे सकता कि उसका भी कोई शत्रु है। लोग भले ही ऐसा सोचें कि वे हमारे दुश्मन है, लेकिन हमें उनके इस गुमानको अस्वीकार कर देना चाहिए। मैंने लोगोंको यह गुमान करते सुना है। इसलिए मैं "गुमान" शब्दका प्रयोग कर रहा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि जो अपनेको हमारा दुश्मन समझते हैं, उनसे प्रेम करना कैसे सम्भव है। अभी कल ही और कल ही क्यों, मुझे तो लगभग प्रति सप्ताह मेरी इस बुनियादी आस्थाके प्रतिवादमें, हिन्दुओं, मुसलमानों और कभी-कभी ईसाइयोंके भी पत्र मिलते रहते हैं। यदि लिखनेवाला हिन्दू है तो वह मुझसे पूछता है, "जो गाय मुझे जीवनके समान प्यारी है, उसकी हत्या करनेवाले मुसलमानसे मेरा प्रेम करना कैसे सम्भव है? या लिखनेवाला ईसाई है तो वह पूछता है," उन हिन्दुओंसे प्रेम करना कैसे सम्भव है जो कि उन लोगोंसे, जिन्हें वे अछूत कहते है, इतना दुर्व्यवहार करते हैं और जिन्होंने अपनी जनसंख्याके पांचवें भागको पद-दलित कर रखा है?" और यदि लिखनेवाला मुसलमान है तो वह मुझसे पूछता है, "ऐसे हिन्दुओंके साथ भ्रातृत्व या मैत्रीका व्यवहार करना कैसे सम्भव है जो पशु और पत्थरकी पूजा करते हैं?" मैं इन तीनोंसे कहता हूँ, "यदि आप उन लोगोंसे, जिनका आपने उल्लेख किया है, प्रेम नहीं कर सकते तो मेरे लिए आपके भ्रातृत्वकी कोई कीमत नहीं है।" लेकिन आखिर इस रुखका अर्थ क्या है? क्या इससे कायरतापूर्ण भय या असहिष्णुता प्रकट नहीं होती? यदि हम सबको