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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इसीसे मिलती-जुलती एक और बात भी है, जिसकी ओर ध्यान दिला देना यहाँ अनुचित न होगा। वह यह कि अगर खादी प्रचारके कामको सचमुच सफल बनाना है तो उसका उद्देश्य केवल विदेशी कपड़ोंका बहिष्कार ही नहीं होना चाहिए, बल्कि साथ ही पोशाकके मामलेमें अराष्ट्रीय और यहाँकी आबोहवाके प्रतिकूल पड़नेवाले फैशनों और रुचियोंको भी दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिए। वैसे खादी-कार्य इस दिशामें एक हदतक तो कुछ परिणाम दिखा भी चुका है।

मन्दिरोंके अस्तित्वको मैं पाप या अन्धविश्वासका द्योतक नहीं मानता। कोई। एक सामान्य पूजापद्धति और सामान्य पूजनस्थल मनुष्यके लिए आवश्यक प्रतीत होता है। मन्दिरोंमें मूर्तियाँ होनी चाहिए या नहीं, यह बात तो व्यक्तिकी मानसिक वृत्ति और रुचिपर निर्भर करती है। वैसे, मैं नहीं मानता कि हिन्दुओंका मन्दिर या रोमन कैथोलिकोंका गिरजाघर, जहाँ मूर्तियाँ रखी जाती है, बुरा और अन्धविश्वासको प्रश्रय देनेवाला स्थान ही है और मसजिद या प्रोटेस्टेंटोंका गिरजाघर महज इस कारण कि उसमें मूर्ति नहीं रखी जाती, अच्छा और अन्धविश्वासोंसे मुक्त स्थान है। पुस्तक या क्रास—जैसा कोई प्रतीक भी बड़ी आसानीसे मूर्तिपूजाका रूप ले सकता है, और इसलिए वह भी अन्धविश्वासमूलक बन जा सकता है। दूसरी ओर बालकृष्ण और कुमारी मेरीकी पूजा भी पूजा करनेवालोंका उद्धार करनेवाली और अन्धविश्वाससे रहित हो सकती है। यह बात तो भक्तके हृदयको भावनापर निर्भर करती है।

खादी प्रचार और तथाकथित अस्पृश्योंके लिए मन्दिर बनवानेकी बातके बीच मुझे तो कोई सादृश्य दिखाई नहीं देता। लेकिन मैं पत्र-लेखकको इस दलीलको स्वीकार करता हूँ कि विदेशी वस्त्र-विरोधी आन्दोलन में अनावश्यक और हानिकर विदेशी फैशनों और रुचियोंके त्यागकी बात भी शामिल रहनी चाहिए। मगर इसके लिए अलगसे प्रचार करनेकी जरूरत नहीं है। आम तौरपर तो यही देखा गया है कि जिन लोगोंने खादीको अपना लिया है, उन्होंने पहनावेके मामलेमें ऐसे फैशनों और रुचियोंको भी त्याग दिया जो हमारे यहाँकी आबोहवाके लिए बिलकुल गैर-ज़रूरी है।

मेरा तो ऐसा खयाल है कि आपने खिलाफतके काममें जो मदद की है, वह इसीलिए को कि इस मामलेमें आपके मुसलमान देशभाइयोंकी भावना बड़ी तीव्र थी। लेकिन किसी भी कामके वास्तविक औचित्य और महत्त्वके विषयमें अपने मनको पूरी तरह आश्वस्त किये बिना केवल इसलिए कि उसके सम्बन्धमें हमारे भाइयोंकी भावना, सही तौरपर या गलत तौरपर, बहुत तीव्र है, उस कामकी मदद करना क्या उचित या न्यायसंगत होगा? या आपका मन इस विषयमें आश्वस्त हो गया था कि ख़िलाफत अपने आपमें एक उत्तम चीज है और यदि आपका मन इस विषयमें आश्वस्त हो गया था तो क्या आप उसके कारण बतायेंगे—विशेषकर इस बातको ध्यानमें रखते हुए कि आधुनिक तुर्कीन भी शायद इस खयालसे कि इससे इस्लामी दुनियामें नितान्त विवेकहीन और कट्टरतापूर्ण ढंगको धर्मान्धताको बराबर प्रश्रय मिलता रहेगा, उसे बातकी-बातमें खत्म कर दिया है?