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ये अटपटे सवाल


पत्र-लेखककी यह दलील बिलकुल सही है कि किसीको अपने भाईके काममें भी तभी मदद करनी चाहिए, जब उसपर पूरी तरह विचार करनेके बाद उसका मन यह स्वीकार करता हो कि वह काम न्यायसंगत है। मैंने जब मुसलमान भाइयोंका साथ देना तय किया तब खुद मेरा मन तो इस बातको पूरी तरह स्वीकार करता था कि उनका काम न्यायसंगत है। खिलाफतके कामको मैंने क्यों सही माना, इसके कारण जानने के लिए मैं 'यंग इंडिया' के उस समयके अंकोंकी फाइलें देखने की सलाह दूँगा। आधुनिक तुर्की जो कुछ भी करता है, कोई ज़रूरी नहीं कि वह सब उचित ही हो। इसके अलावा मुसलमान लोग अपने रीति-रिवाजोंमें चाहे जो नई बातें दाखिल कर सकते हैं, लेकिन जो मुसलमान नहीं है, वह उस धर्ममें कोई नई बात दाखिल करने के लिए उन्हें नहीं कह सकता। वह तो सिर्फ इतना ही कर सकता है कि किसी पद्धति या रिवाजका समर्थन करने के पहले यह देख ले कि सामान्य नैतिकताकी दृष्टिसे वह उचित है या नहीं। मेरा मन इस विषयमें आश्वस्त था कि खिलाफतकी संस्थामें कोई बात अनुचित नहीं है। जो मुसलमान नहीं हैं, ऐसे कितने ही लोगोंने, जिसमें स्वयं लायड जॉर्ज भी एक है, इस मामलेमें मुसलमानोंके पक्षको सही माना और मैंने इस संस्थाका बचाव एऐसे लोगोंके प्रहारोके खिलाफ ही किया, जो मुसलमान नहीं हैं।

जब आप आफ्रिकामें और यहाँ भारतमें युद्धक्षेत्रमें काम करने के लिए लोगोंको भरती कर रहे थे तब क्या आप वास्तवमें युद्धकार्यमें सहायता नहीं कर रहे थे? यह बात आपके अहिंसाके सिद्धान्तसे किस प्रकार संगत हो सकती है?

दक्षिण आफ्रिका और इंग्लैंडमें आहत सहायक दलके लिए लोगोंको भरती करके तथा भारतमें युद्ध-क्षेत्रमें काम करने के लिए रंगरूटोंकी भरती करके मैंने युद्ध-कार्यमें नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य नामक उस संस्थाकी मदद की, जिसके बारेमें तब मेरा विश्वास था कि वह अन्ततः कल्याणकारी ही साबित होगी। उन दिनों भी युद्धसे मुझे उतनी ही वितृष्णा थी जितनी कि आज है, और तब भी मैं न तो अपने हाथमें बन्दूक संभाल सकता था और न वैसा करना पसन्द ही कर सकता था। लेकिन जिन्दगी कोई सीधी लकीर नहीं है। वह तो परस्पर विरोधी कर्त्तव्योंका एक समुच्चय है। और मनुष्यके सामने अक्सर ऐसे प्रसंग आते ही रहते हैं जब उसे दो परस्पर विरोधी कर्त्तव्योंमें से किसी एकको चुनना पड़ता है। एक नागरिककी हैसियतसे मुझे ऐसे लोगोंको सलाह और नेतृत्व देना था जो युद्धमें विश्वास तो करते थे, किन्तु कायरतावश अथवा किसी क्षुद्र उद्देश्यसे या ब्रिटिश सरकारके प्रति क्षोभके कारण सेनामें भरती होनेसे कतराते थे। युद्ध विरोधी आन्दोलनका नेतत्व करनेवाले सधारककी हैसियतसे मेरा वैसा करना न तब सम्भव था, न आज। लेकिन एक नागरिककी हैसियतसे मैंने उस समय उनको निःसंकोच भावसे यह सलाह दी कि जबतक उनका युद्ध में विश्वास है और जबतक वे कहते हैं कि वे ब्रिटिश संविधानके प्रति वफादार हैं, तबतक भरती होकर उसकी सहायता करना उनका कर्त्तव्य है। यद्यपि मैं शस्त्रोंके प्रयोगमें विश्वास नहीं रखता, और यद्यपि यह चीज मेरे अहिंसाधर्मके विरुद्ध है, फिर