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जातिगत श्रेष्ठताकी बीमारी

जातिका अन्त्यज नीची जातिके अन्त्यजका स्पर्श नहीं करता और वह नीची जातिके बालकोंके स्कूलोंमें अपने लड़केको भेजने के लिए कतई तैयार नहीं है। उनमें परस्पर रोटी-बेटीके सम्बन्धकी बात तो सोची भी नहीं जा सकती। यह तो वर्ण-व्यवस्था-का अनर्थ है। एक वर्ग द्वारा अपनेको दूसरे वर्गसे ऊँचा माननेके इस अहंकारका विरोध करनेके लिए मैं अपनेको भंगी कहने में आनन्द मानता हूँ, क्योंकि जहाँतक मैं जानता हूँ, कोई भी जाति ऐसी नहीं है जो भंगीसे भी नीची मानी जाती हो। वही बेचारा हमारे समाजका वह कोढ़ी है, जिससे सभी दूर भागते हैं। फिर भी हकीकत यह है कि वह समाजके उस वर्गका सदस्य है जो वर्ग हमारी स्वच्छता और इसलिए हमारे शारीरिक अस्तित्वके लिए किसी भी अन्य वर्गकी अपेक्षा अधिक अनिवार्य है। जिनकी ओरसे उपर्युक्त कागज मुझे दिया गया है, उन सज्जनोंके प्रति मेरी पूर्ण सहानुभूति है। लेकिन मैं उन्हें आगाह किये देता हूँ कि जो लोग उनसे भी बुरी स्थितिमें पड़े हुए हैं, उन्हें वे इस तरह अपनेसे अधम न मानें। उनका कर्त्तव्य तो यह है कि वे उन्हें भी अपने साथ मिला लें और जो सुविधाएँ उनसे नीच माने जानेवाले इन लोगोंको न दी जायें, वे स्वयं भी उनका लाभ उठानेसे इनकार कर दें। यदि हम हिन्दूधर्मको अस्वाभाविक विष हममें से कुछ लोगोंको प्राणपणके साथ इसके खिलाफ विद्रोह करना होगा। मेरे खयालसे तो जो लोग श्रेष्ठ होनेका दावा करते हैं, वे अपने इस दावेके कारण ही श्रेष्ठताके अधिकारको गँवा बैठते हैं। सच्ची और स्वाभाविक श्रेष्ठता तो उसका दावा किये बिना आती है। ऐसी श्रेष्ठताको लोग खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं, और जो व्यक्ति इस प्रकार श्रेष्ठ होता है, वह इस सम्मानसे इनकार ही करता रहता है। लेकिन वह ऐसा पाखण्डके कारण या झूठी विनम्रताको भावनासे नहीं, बल्कि इसलिए करता है कि वह ऐसा महसूस नहीं करता कि वह श्रेष्ठ है और जानता है कि स्वयं उसकी आत्मा और जो व्यक्ति अपनेको उससे छोटा मानता है, उसकी आत्मामें कोई अन्तर नहीं है। जीवनका अर्थ अधिकारों और सुविधाओंका समुच्चय नहीं; जीवनका अर्थ तो कर्त्तव्य है। जिस धर्मकी नींव ऊँच-नीचके भेदपर आधारित होगी, उसका नाश निश्चित है। वर्णाश्रम धर्मका मैं ऐसा अर्थ नहीं मानता। मैं उसमें इसलिए विश्वास करता हूँ कि मैं मानता हूँ, वह अलग-अलग धन्धोंमें लगे लोगोंके कर्त्तव्योंको निर्धारित करता है। ब्राह्मण वही है जो सभीका सेवक है—शूद्रोंका और अस्पृश्योंका भी। सबकी सेवा करने के लिए वह अपना सब-कुछ अर्पित कर देता है और स्वयं दूसरोंके दान और अनुग्रहपर ही जीवन-निर्वाह करता है। अधिकार, सम्मान और विशेष सुविधाओंका दावा करनेवाला व्यक्ति क्षत्रिय नहीं है। क्षत्रिय तो वही है जो समाजका रक्षण करनेके लिए, उसको प्रतिष्ठाके लिए आत्मार्पण कर देता है। और जो वैश्य सिर्फ अपने लिए ही कमाना और केवल धन-संग्रह करना ही अपना धर्म मानता है, वह वैश्य नहीं, चोर है। शूद्र चूंकि पारिश्रमिक लेकर समाजके लिए श्रम करता है, इसीलिए उसे किसी भी तरहसे तीनों वर्णोंसे अधम नहीं माना जा सकता। हिन्दूधर्मकी मेरी कल्पनाके अनुसार पंचम, अर्थात् अस्पृश्योंका कोई वर्ण है ही नहीं। जिन्हें अस्पृश्य