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२३९. हमारी दुर्बलता

हकीम साहब अजमल खाँ और डा॰ अन्सारी यूरोपकी और साथ ही सीरियाकी भी लम्बी यात्रा पूरी करके अभी ही लौटे हैं। उन्होंने मुझे नीचे लिखा पत्र भेजा है :[१]

कांग्रेसकी ओरसे राष्ट्र-संघ (लीग आफ नेशन्स) को तार भेजनेकी उनकी सलाह मुझसे स्वीकार करते नहीं बनीं। इसलिए मैंने उन्हें निम्नलिखित उत्तर भेज दिया है :[२]

उसके अभाव में मैं दूसरी सबसे अच्छी बात यही कर सकता था कि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पत्र को अपने उत्तर के साथ प्रकाशित कर दूँ। किसी निवेदनके पीछे जब तक किसी नैतिक अथवा भौतिक बल ना हो, तबतक मैं निवेदन करना बेकार मानता हूँ। नैतिक-बल निवेदकोंके कुछ करनेके संकल्पसे, निवेदनको सफल बनानेके लिए कुछ त्याग-बलिदान करने के निश्चयसे उत्पन्न होता है। यहाँतक की बच्चे भी इस प्राथमिक नियम को जानते हैं अपनी बात मनवाने के लिए वे खाना-पीना तक छोड़ देते है, रोते-चिल्लाते है। और शैतान बच्चे तो, माँ अगर उनकी आग्रहपूर्ण माँगे पूरी न करें तो उसे मारने में भी नहीं हिचकिचाते। जबतक हम लोग इस नियम को समझकर इसपर अमल करने के लिए तैयार नहीं है, तबतक किसीसे थोथा निवेदन करनेका परिणाम अधिक बुरा नहीं तो इतना तो होगा ही कि दुनियाँ कांग्रेस पर हँसेगी और हमपर भी।

शैतानी तो हम इच्छा होते हुए भी नहीं कर सकते; अलबत्ता, कष्ट अवश्य सह सकते हैं। मैं चाहता हूँ कि हम हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, सब—भारतीयों या एशियाइयोंकी हैसियत से यह महसूस करें कि सीरीयाका जो अपमान किया जा

 
  1. यह पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें पत्र-लेखकोंने फ्रांसके द्वारा सीरियापर किये जा रहे अत्याचारोंका वर्णन किया था। राष्ट्र संघ (लीग आफ नेशन्स) ने सीरियाका शासनाधिकार (मेंडेट) फ्रांसको दे दिया था, और उसे वहाँका शासन वहाँ के लोगोंके कल्याण और हित-साधनके लिए चलाना था। सीरियावालोंके आन्तरिक मामलोंमें स्वतन्त्र रहनेकी बात थी। किन्तु, पत्र-लेखकोंने वहाँ इससे बिलकुल उलटा ही देखा। उनका हितसाधन तो दूर, उनपर तरह-तरहके अत्याचार किये जा रहे हैं; उनपर बमबारीतक की जा रही है। इस प्रकार वहाँका पूरा हाल बतानेके बाद पत्रमें कहा गया था कि "हम आपको यह पत्र इस उद्देश्यसे लिख रहे हैं कि हमारे इन एशियाई भाइयोंको आपकी सहानुभूति मिल सकें और आप कांग्रेसके अध्यक्षकी हैसियतसे राष्ट्र संघको, जिसने फ्रांसको सीरियाका शासनाधिकार दिया है, एक तार भेजें तथा अन्य कांग्रेस संगठनोंको भी वैसा ही करनेकी सलाह दें। हम जानते है कि भारतकी वर्तमान स्थिति ऐसी कोई कार्रवाई करनेकी दृष्टिसे बहुत उपयुक्त नहीं है, लेकिन भारतीयों, मुसलमानों और एशियाश्योंकी हैसियतसे हमारा यह सुविचारित मत है कि हमें एशियाकी समस्त शोषित-प्रताड़ित जनताके साथ सहानुभूति रखनी चाहिए और उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए, जो उनके और खुद हमारे लिये भी लाभदायक होगा।"
  2. देखिए "पत्र : डा॰ मु॰ अ॰ अन्सारीको", ७–११–१९२५।